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व्हाइट हाउस के नये मालिक भी भारत-अमेरिका संबंधों का सार नहीं बदलेंगे

India-US Relations : अमेरिका के आम चुनाव ने भारत में अभूतपूर्व ध्यान आकर्षित किया है। ऐसा लगता है कि नई अमेरिकी सरकार में भारतीय वंश या भारत से विशेष संबंध रखने वाले कुछ लोगों के प्रवेश ने कुछ भारतीयों को खुश कर दिया है। हालाँकि, यह सोचना पूरी तरह से अवास्तविक है कि अमेरिकी चुनाव.

India-US Relations : अमेरिका के आम चुनाव ने भारत में अभूतपूर्व ध्यान आकर्षित किया है। ऐसा लगता है कि नई अमेरिकी सरकार में भारतीय वंश या भारत से विशेष संबंध रखने वाले कुछ लोगों के प्रवेश ने कुछ भारतीयों को खुश कर दिया है। हालाँकि, यह सोचना पूरी तरह से अवास्तविक है कि अमेरिकी चुनाव के नतीजे से भारत-अमेरिका संबंधों में बुनियादी बदलाव आएंगे। भारत-अमेरिका संबंधों का सार हमेशा अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संरचना में इन दोनों देशों की स्थिति से निर्धारित होता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि व्हाइट हाउस पर कौन कब्जा करता है, यह पैटर्न नहीं बदलेगा यानी कि भारत वैश्विक दक्षिण देशों का एक सदस्य है, जबकि अमेरिका है विश्वा का आधिपत्य।

अमेरिका के नये राष्ट्रपति ट्रम्प ने यह घोषणा की है कि वह “अमेरिका फर्स्ट” नीति अपनाएंगे और औद्योगिक नीति और विदेशी संबंधों में अधिक व्यावहारिक नीति अपनाएंगे। ट्रम्प के सत्ता पर आने से निश्चित रूप से अगले कुछ वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय राजनयिक और आर्थिक परिदृश्य को प्रभावित किया जाएगा। चूंकि ट्रम्प के अधिकांश समर्थक संयुक्त राज्य अमेरिका में अधिक रूढ़िवादी ताकतों से संबंधित हैं, इसलिए वे अमेरिकी हितों के दृष्टिकोण से “अमेरिका फर्स्ट” का पुरजोर समर्थन करते हैं। इसलिए नई अमेरिकी सरकार कूटनीति में मजबूत वैचारिक रंग वाली उन नीतियों से छुटकारा पा सकती है, और तथाकथित सामान्य मूल्यों के आधार पर उन राजनीतिक प्रतिबद्धताओं को कम कर सकती है, और अपने स्वयं हितों के आधार पर विदेशी संबंधों पर विचार कर सकती है।

वर्तमान में, अमेरिकी अर्थव्यवस्था एक वित्तीय साम्राज्य विकसित हो गई है। कुछ अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी कंपनियों और सैन्य उद्यमों को छोड़कर, अधिकांश उच्च ऊर्जा खपत और उच्च उत्सर्जन उद्योगों को विदेशों में स्थानांतरित कर दिया गया है। उधर, अमेरिका विशाल विदेशी संपत्तियों को नियंत्रित करने के लिए अपने वित्तीय, कानूनी, पेटेंट और अन्य साधनों का उपयोग करता है, जो अमेरिका की मुख्य धन आय भी हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका खुद हाई-एंड चिप्स और लिथोग्राफी मशीनों का उत्पादन नहीं करता है, पर यह पेटेंट और अंतरराष्ट्रीय संधियों के माध्यम से हाई-एंड चिप्स और लिथोग्राफी मशीनों की बिक्री को नियंत्रित करता है। अपने राष्ट्रीय हितों के लिए या अमेरिकी प्रतिस्पर्धियों को दबाने के लिए, अमेरिका अन्य देशों के हितों की उपेक्षा कर सक टैरिफ बढ़ाकर अंतरराष्ट्रीय उत्पादन और आपूर्ति श्रृंखला को अस्थिर कर सकता है।

विश्व की संपत्ति अर्जित करने के लिए डॉलर की विनिमय दर के उतार-चढ़ाव के संअमेरिका के उपयोग में कोई बदलाव नहीं होगा। अन्य देश, विशेष रूप से उभरती अर्थव्यवस्थाएं, व्यापार संतुलन, बाजार पहुंच और प्रौद्योगिकी परिचय जैसे मुद्दों पर अधिक दबाव में आ जाएंगी। अमेरिका-भारत के बढ़ते व्यापार असंतुलन और भारत द्वारा रूसी तेल की बड़ी खरीद और अन्य कारणों को देखते हुए, अमेरिका भारत के खिलाफ भी व्यापार प्रतिबंध लगा सकता है। अतीत में, चीन को दबाने की आवश्यकता के कारण अमेरिका ने कई मुद्दों पर भारत के प्रति सहिष्णु रवैया अपनाया, पर अब व्यावहारिक हितों पर ध्यान केंद्रित करने वाली नई अमेरिकी सरकार व्यापार सहित मुद्दों पर भारत के प्रति सहिष्णु नहीं रह सकेगी। अमेरिका के हितों को प्राथमिक देने के लिए, “क्वाड” तंत्र समेत अनेक मुद्दों पर अमेरिका अपने स्वयं के हितों का त्याग नहीं कर  सकेगा।

इसे देखते हुए यह पाते हैं कि भारत का सबसे इमानदार साझेदार अमेरिका नहीं, बल्कि अन्य ब्रिक्स देश हैं। क्योंकि ब्रिक्स देशों के बीच आंतरिक सहयोग पर भरोसा करके ही भारत को बुनियादी ढांचे के निर्माण और विनिर्माण के विकास में प्रभावी मदद मिल सकती है। उदाहरण के लिए, भारत के मोबाइल फोन और फार्मास्युटिकल उद्योग दोनों चीन से प्राथमिक उत्पादों के आयात पर निर्भर हैं। चीनी एपीआई और मोबाइल फोन स्पेयर पार्ट्स के बिना, भारत के दो सबसे महत्वपूर्ण विनिर्माण उद्योग काम नहीं कर सकते हैं। उधर, चीन ने भारत के साथ सबसे मुश्किल संबंधों का काल में ही भारतीय बाजार की गारंटी की। अंतर्राष्ट्रीय आपूर्ति श्रृंखला की स्थिरता के प्रति चीन का जिम्मेदार रवैया भारत के लिए विचार करने योग्य है।

(साभार- चाइना मीडिया ग्रुप, पेइचिंग)

 

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