Ahilyabai Holkar : नई दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आईजीएनसीए) ने लोकमाता अहिल्याबाई त्रिशताब्दी समारोह समिति के सहयोग से ‘देवी अहिल्या – त्यागी महारानी’ विषय पर एक विशेष व्याख्यान का आयोजन किया। यह व्याख्यान कविकुलगुरु कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय, रामटेक, महाराष्ट्र की पूर्व कुलपति प्रो. उमा वैद्य द्वारा दिया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता पद्म विभूषण डॉ. सोनल मानसिंह, पूर्व सांसद और आईजीएनसीए की ट्रस्टी ने की। इस अवसर पर आईजीएनसीए के सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी, आईआईएएस, शिमला की अध्यक्ष प्रो. शशिप्रभा कुमार और कलादर्शन प्रभाग की विभागाध्यक्ष प्रो. ऋचा कंबोज भी उपस्थित रहीं।
व्याख्यान के दौरान प्रो. उमा वैद्य ने देवी अहिल्याबाई होल्कर के सामाजिक, सांस्कृतिक और प्रशासनिक योगदान पर गहन चर्चा की। उन्होंने ‘अहिल्या’ शब्द की व्युत्पत्ति पर प्रकाश डालते हुए बताया कि यह ‘बिना जुती भूमि’ का प्रतीक है, जो पवित्रता और शुद्धता को दर्शाता है। अपने नेतृत्व और कार्यों से अहिल्याबाई ने करुणा, निस्वार्थ सेवा और न्याय की परंपरा स्थापित की, जिससे उन्हें ‘लोकमाता’ की उपाधि मिली।
प्रो. वैद्य ने कहा, “देवी अहिल्याबाई केवल एक शासक नहीं, बल्कि एक संत महारानी थीं, जिन्होंने अपने राज्य को परिवार की तरह संभाला। उनके शासन में आर्थिक, राजनीतिक, कूटनीतिक और सैन्य क्षेत्रों में अद्वितीय विकास हुआ। वह शक्ति और करुणा का अद्भुत संगम थीं।”
कार्यक्रम की अध्यक्ष डॉ. सोनल मानसिंह ने अपने संबोधन में देवी अहिल्याबाई के जीवन की प्रेरणादायक घटनाओं पर प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि जब राघोबा ने इंदौर पर आक्रमण का प्रयास किया, तब अहिल्याबाई ने अद्वितीय साहस और रणनीतिक कौशल का परिचय दिया। उन्होंने प्रशासनिक दक्षता के साथ-साथ सांस्कृतिक और धार्मिक पुनर्जागरण को भी बढ़ावा दिया। उनके द्वारा किए गए मंदिरों, धर्मशालाओं और जल स्रोतों के निर्माण कार्य आज भी उनके सुविचारित शासन का प्रमाण हैं।
डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा, “यह हमारे लिए गर्व की बात है कि पूरा देश ‘पुण्यश्लोका’ अहिल्याबाई होल्कर की त्रि-शताब्दी मना रहा है। उनकी 300वीं जयंती मनाना हमारे सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को पुनः जागृत करने का अवसर है।