वाराणसी: ह्यमईया गौरा चलेलीं ससुराली हो.. और गौरा के साथ पूरा बनारस (वाराणसी) झूम जाता है। रंगभरी एकादशी पर ये गीत फगुआ के रंग को और गाढ़ा कर देता है। फगुआ (होली) से ठीक चार दिन पहले बाबा श्री विश्वनाथ की नगरी काशी एक अलग ही रंग में रंगी दिखाई देती है। चहुं ओर उल्लास छाया रहता है और हो भी क्यों न, उस दिन विश्व के नाथ माता पार्वती को मायके से उनके घर काशी जो ले आते हैं। ऐसे में रंगभरी एकादशी पर धर्मनगरी रंग जाती है, उल्लास, खुशी, भावनाओं और भक्ति के रंग में। दुनियाभर में जहां होली से चार दिन पहले होली की तैयारी चल रही होती है। वहीं, काशीवासी बाबा और माता से अनुमति लेकर होली खेलना शुरू कर देते हैं। काशी के कोने-कोने में ‘नम: पार्वती पतये हर-हर महादेव’ गूंजता रहता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार रंगभरी एकादशी के दिन गौना बारात का आगमन होता है।
बाबा विश्वनाथ माता गौरा को अपने साथ घर ले जाने के गण के साथ पहुंचते हैं, जिसकी शुरुआत हल्दी लगाने के साथ शुरू होती है। स्थानीय प्रज्ञा बताती हैं, ‘पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान शिव माता के साथ पहली बार रंगभरी एकादशी को गौना कराकर काशी आए थे। इस विशेष तिथि पर भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा का भी विशेष विधान है। काशीवासियों के लिए यह दिन विशेष महत्व रखता है। काशी के छोटे से लेकर बड़े हर देवी-देवता के मंदिर को सजाया जाता है और लोग उल्लास में डूबे रहते हैं।‘ प्रभुनाथ त्रिपाठी परंपरा की बात करते हैं। उन्होंने बताया, ‘मान्यता है कि देवी-देवताओं के साथ काशीवासी भगवान शिव और माता पार्वती के आने की खुशी में न केवल दीप जलाकर बल्कि गुलाल और अबीर उड़ाकर उनका स्वागत करते हैं। पुरातन काल से ही इस परंपरा कि नींव पड़ी और आज भी उल्लास में डूबे काशीवासी बाबा के साथ माता पार्वती का स्वागत रंग, गुलाल और फूलों की वर्षा के साथ करते हैं।’