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Khalsa Panth : मुझे 5 शीश चाहिए… जानिए गुरु गोविंद सिंह जी ने कैसे की खालसा पंथ की स्थापना

नेशनल डेस्क : 17वीं शताब्दी में भारत मुगल शासक औरंगजेब के अधीन था। उसका शासन बहुत ही कठोर और धार्मिक रूप से अन्यायपूर्ण था। हिंदू धर्म को मिटाने के प्रयास किए जा रहे थे। मंदिरों को तोड़ा जा रहा था, और धर्म परिवर्तन के लिए लोगों पर दबाव डाला जा रहा था। उसी दौर में.

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नेशनल डेस्क : 17वीं शताब्दी में भारत मुगल शासक औरंगजेब के अधीन था। उसका शासन बहुत ही कठोर और धार्मिक रूप से अन्यायपूर्ण था। हिंदू धर्म को मिटाने के प्रयास किए जा रहे थे। मंदिरों को तोड़ा जा रहा था, और धर्म परिवर्तन के लिए लोगों पर दबाव डाला जा रहा था। उसी दौर में औरंगजेब की सेना ने कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार शुरू किए, जिससे वे बहुत दुखी होकर सिखों के नौवें गुरु, गुरु तेग बहादुर जी के पास मदद मांगने पहुंचे। आइए जानते है इस खबर को विस्तार पूर्वक…

गुरु तेग बहादुर जी की शहादत

बता दें कि जब गुरु तेग बहादुर जी ने कश्मीरी पंडितों की पीड़ा सुनी, तो उन्होंने दिल्ली जाकर औरंगजेब से मिलने का निर्णय लिया। उन्होंने बादशाह को चुनौती दी कि अगर वह उन्हें इस्लाम धर्म अपनाने के लिए मजबूर कर सके, तो सारे पंडित खुद ही धर्म बदल लेंगे। लेकिन गुरु तेग बहादुर जी अडिग रहे और किसी भी यातना के आगे झुके नहीं। अंततः उन्हें दिल्ली में शहीद कर दिया गया। उनके साथ उनके साथी भाई मती दास, सती दास और भाई दयाल दास को भी बड़ी बेरहमी से मार डाला गया।

गुरु गोविंद सिंह जी का संकल्प

वहीं अपने पिता की शहादत के बाद गुरु गोविंद सिंह जी सिखों के दसवें गुरु बने। उन्होंने यह ठान लिया कि अब सिखों को केवल आध्यात्मिक नहीं बल्कि शारीरिक रूप से भी मज़बूत और लड़ाकू बनाना होगा। उन्होंने एक ऐसा समाज खड़ा करने का निश्चय किया जो ना सिर्फ धर्म की रक्षा करे, बल्कि अन्याय के खिलाफ डटकर खड़ा हो सके। इसी सोच से खालसा पंथ की नींव रखी गई।

1699 की बैसाखी, खालसा पंथ का जन्म

30 मार्च 1699 को बैसाखी के पावन दिन पर गुरु गोविंद सिंह जी ने पंजाब के आनंदपुर साहिब में एक विशाल सभा बुलाई। हजारों श्रद्धालु वहां एकत्र हुए थे। गुरु जी ने सभा में आते ही अपनी तलवार निकालकर कहा – “मुझे पांच सिर चाहिए, कौन देगा?” यह सुनकर सब लोग हैरान रह गए, लेकिन कुछ ही पल में एक व्यक्ति आगे आया और बोला – “मैं अपना सिर देने को तैयार हूं।”

पांच प्यारे – खालसा की नींव

गुरु जी उस व्यक्ति को तंबू में ले गए और थोड़ी देर बाद अकेले बाहर लौटे, तलवार पर खून के निशान थे। उन्होंने फिर वही बात दोहराई और एक-एक कर पाँच लोग आगे आए। उनके नाम थे – भाई दया सिंह, भाई धर्म सिंह, भाई हिम्मत सिंह, भाई मोहकम सिंह और भाई साहिब सिंह। इन पाँचों को बाद में “पंच प्यारे” कहा गया। गुरु जी ने बताया कि यह केवल परीक्षा थी, उन्होंने किसी को नहीं मारा, बल्कि उनका साहस परखा।

अमृत संचार – खालसा में दीक्षा की परंपरा

इसके बाद गुरु गोविंद सिंह जी ने एक लोहे का बर्तन लिया, उसमें पानी और पातासे डाले और अपनी तलवार से उसे घोला। इसे कहा गया “अमृत”, जिसे सबसे पहले पंच प्यारे को पिलाया गया। फिर पंच प्यारों ने उसी अमृत से गुरु जी को भी दीक्षित किया। इस तरह गुरु और शिष्य की बराबरी का संदेश दिया गया।

खालसा की पहचान – पाँच ककार

गुरु जी ने खालसा पंथ के अनुयायियों को एक विशेष पहचान दी, जो पाँच ‘ककार’ के रूप में जानी जाती है। ये हैं – केश (बिना कटे बाल), कंघा (लकड़ी की कंघी), कड़ा (लोहे का ब्रेसलेट), कच्छा (अनुशासन का प्रतीक अंडरवियर) और किरपाण (तलवार)। इन पाँचों प्रतीकों के ज़रिए खालसा सिख हमेशा तैयार और सजग रहते हैं।

नाम में बदलाव और उद्देश्य

गुरु जी ने घोषणा की कि अब से सभी सिख पुरुष अपने नाम के पीछे “सिंह” (शेर) और महिलाएं “कौर” (राजकुमारी) लगाएंगी। खुद गुरु गोविंद सिंह जी ने अपना नाम गोविंद राय से गोविंद सिंह कर लिया। खालसा का उद्देश्य था – धर्म की रक्षा करना, अत्याचार के खिलाफ खड़ा होना, गरीबों और कमज़ोरों की मदद करना और इंसानियत की सेवा करना।

गुरु गोविंद सिंह जी द्वारा खालसा पंथ की स्थापना केवल एक धार्मिक घटना नहीं थी, यह एक सामाजिक और आध्यात्मिक क्रांति थी। इससे सिखों को एक नई पहचान मिली – “संत-सिपाही” की, यानी जो जरूरत पड़ने पर पूजा भी कर सके और अन्याय के खिलाफ तलवार भी उठा सके। आज भी खालसा पंथ दुनिया भर में धर्म, साहस और सेवा का प्रतीक बना हुआ है।

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