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लोक कल्याण के वाहक देवर्षि नारद

देवर्षि नारद भगवान के उन चुने हुए पात्रों में से हैं जो भगवान की ही भांति अवतीर्ण होकर भगवान की भक्ति और उनके महात्म्य का विस्तार करते हुए लोक कल्याण के लिए जगत में विचरते हैं और भगवान के लीला सहचर के रूप में तीनों लोकों में प्रसिद्ध हैं। देवर्षि नारद का प्रमुख कार्य वीणा की मधुर झंकार के साथ प्रभु के गुणों का गान करते हुए सदैव पर्यटन करना है। देवर्षि कीर्तन के परमाचार्य हैं। भागवत- धर्म के प्रधान बारह आचार्यों में इनकी गणना होती है और भक्तिसूत्र के निर्माता भी इन्हें कहा जाता है। इनके द्वारा रचित भक्तिसूत्रों में भक्तित्व की बड़ी सुंदर व्याख्या की गई है। देवर्षि नारद के बारे में विख्यात है कि इन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी पर घर-घर एवं जन-जन में भक्ति स्थापना करने की प्रतिज्ञा भी की है।

देवर्षि नारद पूर्व जन्म में गन्धर्व थे। उनके जन्म के कुछ ही समय उपरांत इनके पिता काल का ग्रास बन गए और इनकी माता दासी का कार्य कर इनका पालन-पोषण करने लगीं। एक बार इनके गांव में कुछ साधु आए और चातुर्मास बिताने के लिए वहां ठहर गए। नारद जी खेल-कूद छोड़कर इनकी संगति में ही रहने लगे। संत सभा में प्रभु की महिमा गुणगान व भागवत कथा होती तो यह तन्मय होकर श्रवण करते। इस प्रकार इनका हृदय पवित्र हो गया और इनके पाप धुल गए। साधुओं ने जाते समय इन्हें भगवान के नाम का जाप एवं भगवान के स्वरूप का उपदेश भी दिया। जब नारद जी मात्र 5 वर्ष की आयु के थे तो इनकी माता का देहांत सांप के काटने से हो गया। प्रभु की ऐसी ही इच्छा मान नारद जी प्रभु की भजन बंदगी के लिए घर से निकल पड़े।

एक दिन जब नारद जी वन में बैठ कर भगवान के स्वरूप का ध्यान कर रहे थे तो अकस्मात इनके हृदय में भगवान प्रकट हो गए। कुछ पल अपनी दिव्य झलक दिखा आलोप हो गए। प्रभु दर्शन के लिए नारद व्याकुल हो उठे और बार-बार अपने मन को एकाग्र कर भगवान के ध्यान का प्रयास करने लगे किन्तु सफल न हो सके। उसी समय आकाशवाणी हुई कि अब इस जन्म में फिर तुम्हें मेरे दर्शन नहीं होंगे। अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद रूप में मुझे पुन: प्राप्त करोगे। समय आने पर नारद जी का नश्वर शरीर छूट गया और कल्प में ये ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतरित हुए। वह भगवान के मन के अवतार हैं। दयामय भक्तवत्सल प्रभु जो कुछ करना चाहते हैं देवर्षि द्वारा वैसी ही चेष्टा होती है। भगवान व्यास जब संपूर्ण वेदों का विभाजन, इतिहास, पुराण तथा महाभारत की रचना कर अपने को अकृतार्य और असम्पन्न अनुभव कर रहे थे तो उसी समय नारद जी ने उन्हें भगवत ग्रंथ की रचना करने को कहा जिसे व्यास जी ने तुरंत मान भागवत ग्रंथ की रचना कर शुकदेव को पढ़ाया। पुराणों से ज्ञात होता है कि व्यास जी, शुकदेव, प्रह्लाद, ध्रुव तथा अम्बरीष आदि को इन्होंने ही भक्ति का उपदेश दिया।

श्री रामचरित मानस में प्राय: वह श्रीराम की प्रत्येक लीला के समय प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष उनके साथ रहते हैं। भगवान की प्राकट्य-लीला, वनवास, सीता जी से वियोग होने पर बहुत देर तक श्रीराम से वार्तालाप करते हैं। भगवान के रावण युद्ध के समय वह प्रभु श्रीराम को उत्साहित करते हैं। श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद वह प्रतिदिन अपने आराध्य की नगरी अयोध्या की शोभा और प्रभु श्रीराम को देखने वहां आते हैं और उनकी स्तुति करते हैं। पुन: ब्रह्मलोक जाकर ब्रह्मा जी एवं सनकादि ऋषियों को सारी कथाएं सुनाते हैं। जैसी भक्ति देवर्षि नारद की श्रीराम में है वैसे ही प्रभुकी अपने प्रेमीभक्त देवर्षि नारद जी में है। स्वयं प्रभु श्रीराम ने भी उनकी महिमा का बखान किया है। देवर्षि नारद का जीवन विश्व के कल्याण एवं मंगल के लिए ही है। विद्या के भंडार,आनंद के सागर, ज्ञान के स्वरूप और विश्व के सहज हितकारी यदि किसी एक में हैं तो वह देवर्षि नारद में ही हैं।

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