सलोकु मः ३ ॥ नानक बिनु सतिगुर भेटे जगु अंधु है अंधे करम कमाइ ॥ सबदै सिउ चितु न लावई जितु सुखु वसै मनि आइ ॥ तामसि लगा सदा फिरै अहिनिसि जलतु बिहाइ ॥ जो तिसु भावै सो थीऐ कहणा किछू न जाइ ॥१॥ मः ३ ॥ सतिगुरू फुरमाइआ कारी एह करेहु ॥ गुरू दुआरै होइ कै साहिबु समालेहु ॥ साहिबु सदा हजूरि है भरमै के छउड़ कटि कै अंतरि जोति धरेहु ॥ हरि का नामु अम्रितु है दारू एहु लाएहु ॥ सतिगुर का भाणा चिति रखहु संजमु सचा नेहु ॥ नानक ऐथै सुखै अंदरि रखसी अगै हरि सिउ केल करेहु ॥२॥
अर्थ : हे नानक! गुरु को मिलने के बिना संसार अँधा है और अंधे ही काम करता है। सतगुरु के शब्द के साथ मन नहीं जोड़ता जिससे हृदय में सुख आ बसे। तमो गुण में मस्त हुआ सदा भटकता है और दिन रात (तमो गुण में) जलते हुए (उस की सारी उम्र) बीत जाती है। (इस बारे में) कुछ कहा नहीं जा सकता, जो प्रभु को अच्छा लगता है, सो ही होता है॥१॥ सतगुरु ने हुकम दिया है (भ्रम का साथ छोड़ने के लिए) यह काम (भावार्थ, इलाज) करो। गुरु के दर पर जा कर (गुर के चरण लग कर), मालिक को याद करो। मालिक सदा संग है, (आँखों के आगे से भ्रम के जाले को उतार कर हृदय में उस की जोत टिकाओ। हरी का नाम अमर करने वाला है, यह दावा इस्तेमाल करो। सतगुरु का भाना (सतगुरु का किया) (मानना) चित में रखो और सच्चा प्यार (रूप) रहनी धारण करो। हे नानक! (यह दारु(दवा)) यहाँ (संसार में) सुखी रखेगा और आगे (परलोक में )हरी के साथ आनंद मनाओगे॥२॥