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हुक्मनामा श्री हरिमंदिर साहिब जी 20 सितंबर 2024

धर्म : मोरी अहं जाइ दरसन पावत हे ॥ राचहु नाथ ही सहाई संतना ॥ अब चरन गहे ॥१॥ रहाउ ॥ आहे मन अवरु न भावै चरनावै चरनावै उलझिओ अलि मकरंद कमल जिउ ॥ अन रस नही चाहै एकै हरि लाहै ॥१॥ अन ते टूटीऐ रिख ते छूटीऐ ॥ मन हरि रस घूटीऐ संगि साधू उलटीऐ ॥ अन नाही नाही रे ॥ नानक प्रीति चरन चरन हे ॥२॥२॥१२९॥

अर्थ :-हे भाई ! संतो के सहाई खसम-भगवान के चरणों में सदा जुड़े रहो । मैंने तो अब उसे के ही चरण पकड़ लिए हैं। खसम-भगवान का दर्शन करने से मेरी हऊमै दूर हो गई है।1।रहाउ। (हे भाई ! भगवान के दर्शन की बरकत के साथ) मेरे मन को ओर कुछ भी बढ़िया नहीं लगता, (भगवान के दर्शन को ही) ताँघता रहता हूँ । जैसे भँवरा कौल-फूल की धूड़ी में लपटा रहता है, उसी प्रकार मेरा मन भगवान के चरणों की तरफ ही बार बार परतता है। मेरा मन ओर (पदार्थों के) स्वादों को नहीं लोड़ता, एक परमात्मा को खोजता है।1। (हे भाई ! भगवान के दर्शन की बरकत के साथ) ओर (पदार्थों के मोह) से संबंध तोड़ लेते हैं, इंद्रीयों की पकड़ से खलासी ड़ाल लेते हैं । हे मन ! गुरु की संगत में रह के परमात्मा का नाम-रस पीते है, और (माया के मोह की तरफ से वृती) परत जाती है। हे नानक ! (बोल-) हे भाई ! (दर्शन की बरकत के साथ) ओर मोह जरा भी नहीं भाता, हर समय भगवान के चरणों के साथ ही प्यार बना रहता है।2।2।129।

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