Hukamnama: सलोक मः ५ ॥ साजन तेरे चरन की होइ रहा सद धूरि ॥ नानक सरणि तुहारीआ पेखउ सदा हजूरि ॥१॥ मः ५ ॥ पतित पुनीत असंख होहि हरि चरणी मनु लाग ॥ अठसठि तीरथ नामु प्रभ जिसु नानक मसतकि भाग ॥२॥ पउड़ी ॥ नित जपीऐ सासि गिरासि नाउ परवदिगार दा ॥ जिस नो करे रहम तिसु न विसारदा ॥ आपि उपावणहार आपे ही मारदा ॥ सभु किछु जाणै जाणु बुझि वीचारदा ॥ अनिक रूप खिन माहि कुदरति धारदा ॥ जिस नो लाइ सचि तिसहि उधारदा ॥ जिस दै होवै वलि सु कदे न हारदा ॥ सदा अभगु दीबाणु है हउ तिसु नमसकारदा ॥४॥
अर्थ: हे सजन मैं सदा तेरे पेरों की खाक बना रहूँ, गुरू नानक जी अरदास करते हैं की मैं तेरी शरण पड़ा रहूँ और तुझे ही अपने अंग-संग देखूं ॥१॥ (विकारों में) गिरे हुए भी बेयंत जीव पवित्र हो जाते हैं अगर उनका मन प्रभु के चरणों में लग जाए, प्रभु का नाम ही अठासठ तीर्थ है, परन्तु, (गुरू नानक जी स्वयं को कहते हैं) हे नानक! (यह उसको मिलता है) जिस के माथे पर भाग्य (लिखें) हैं॥२॥
(हे भाई!) पालनहार प्रभू का नाम साँस लेते हुए खाते हुए हर वक्त जपना चाहिए। वह प्रभू जिस बंदे पर मेहर करता है उसको (अपने मन में से) नहीं भुलाना, वह स्वयं जीवों को पैदा करने वाला है और स्वयं ही मारता है, वह अंतरजामी (जीवों के दिल की) हरेक बात जानता है और उसको समझ के (उस पर) विचार भी करता है, एक पलक में कुदरत के अनेकों रूप बना देता है, जिस मनुष्य को वह सच में जोड़ता है उसको (विकारों से) बचा लेता है। प्रभू जिस जीव के पक्ष में हो जाता है वह जीव (विकारों के मुकाबले और मानस जनम की बाजी) कभी नहीं हारता, उस प्रभू का दरबार सदा अटॅल है, मैं उसको नमस्कार करता हूँ।4।