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हुक्मनामा श्री हरमंदिर साहिब जी 17 मार्च 2025

सोरठि महला ३ ॥ हरि जीउ तुधु नो सदा सालाही पिआरे जिचरु घट अंतरि है सासा ॥ इकु पलु खिनु विसरहि तू सुआमी जाणउ बरस पचासा ॥ हम मूड़ मुगध सदा से भाई गुर कै सबदि प्रगासा ॥१॥ हरि जीउ तुम आपे देहु बुझाई ॥ हरि जीउ तुधु विटहु वारिआ सद ही तेरे नाम विटहु.

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सोरठि महला ३ ॥ हरि जीउ तुधु नो सदा सालाही पिआरे जिचरु घट अंतरि है सासा ॥ इकु पलु खिनु विसरहि तू सुआमी जाणउ बरस पचासा ॥ हम मूड़ मुगध सदा से भाई गुर कै सबदि प्रगासा ॥१॥ हरि जीउ तुम आपे देहु बुझाई ॥ हरि जीउ तुधु विटहु वारिआ सद ही तेरे नाम विटहु बलि जाई ॥ रहाउ ॥ हम सबदि मुए सबदि मारि जीवाले भाई सबदे ही मुकति पाई ॥ सबदे मनु तनु निरमलु होआ हरि वसिआ मनि आई ॥ सबदु गुर दाता जितु मनु राता हरि सिउ रहिआ समाई ॥२॥ सबदु न जाणहि से अंने बोले से कितु आए संसारा ॥ हरि रसु न पाइआ बिरथा जनमु गवाइआ जमहि वारो वारा ॥ बिसटा के कीड़े बिसटा माहि समाणे मनमुख मुगध गुबारा ॥३॥ आपे करि वेखै मारगि लाए भाई तिसु बिनु अवरु न कोई ॥ जो धुरि लिखिआ सु कोइ न मेटै भाई करता करे सु होई ॥ नानक नामु वसिआ मन अंतरि भाई अवरु न दूजा कोई ॥४॥४॥ {पन्ना 601}

अर्थ: हे प्रभू जी! तू स्वयं ही (अपना नाम जपने की मुझे) समझ दे। हे प्रभू! मैं तुझसे सदके जाऊँ, मैं तेरे से कुर्बान जाऊँ। रहाउ । हे प्यारे प्रभू जी! (मेहर कर) जब तक मेरे शरीर में प्राण है, मैं सदा तेरी सिफत सालाह करता रहूँ। हे मालिक प्रभू! जब तू मुझे एक पल भर एक छिन भर बिसरता है, तो मैं (मेरे लिए जैसे) पचास साल बीत गए समझता हूँ। हे भाई! हम सदा से ही मूर्ख अंजान चले आ रहे थे, गुरू के शबद की बरकति से (हमारे अंदर आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो गया है।1। हे भाई! हम (जीव) गुरू के शबद के द्वारा (विकारों से) मर सकते हैं, शबद के द्वारा ही (विकारों को) मार के (गुरू) आत्मिक जीवन देता है, गुरू के शबद में जुड़ने से ही विकारों से मुक्ति मिलती है। गुरू के शबद से मन पवित्र होता है, और परमात्मा मन में आ बसता है। हे भाई! गुरू का शबद (ही नाम की दाति) देने वाला है, जब शबद में मन रंगा जाता है तो परमात्मा में लीन हो जाता है।2। हे भाई! जो मनुष्य गुरू के शबद के साथ सांझ नहीं डालते वह (माया के मोह में आत्मिक जीवन की ओर से) अंधे-बहरे हुए रहते हैं, संसार में आ के भी वे कुछ नहीं कमाते। उन्हें प्रभू के नाम का स्वाद नहीं आता, वे अपना जीवन व्यर्थ गवा जाते हैं, वे बार-बार पैदा होते मरते रहते हैं। जैसे गंदगी के कीड़े गंदगी में ही टिके रहते हैं।, वैसे ही अपने मन के पीछे चलने वाले मूर्ख मनुष्य (अज्ञानता के) अंधकार में ही (मस्त रहते हैं)।3। पर, हे भाई! (जीवों के भी क्या वश?) प्रभू खुद ही (जीवों को) पैदा करके संभाल करता है, खुद ही (जीवन के सही) रास्ते पर डालता है, उस प्रभू के बिना और कोई नहीं (जो जीवों को रास्ता बता सके)। हे भाई! करतार जो कुछ करता है वही होता है, धुर दरगाह से (जीवों के माथे पर लेख) लिख देता है, उसे कोई और मिटा नहीं सकता। हे नानक! (कह–) हे भाई! (उस प्रभू की मेहर से ही उसका) नाम (मनुष्य के) मन में बस सकता है, कोई और ये दाति देने के काबिल नहीं है।4।4।

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