सलोक मः १ ॥ भै विचि पवणु वहै सदवाउ ॥ भै विचि चलहि लख दरीआउ ॥ भै विचि अगनि कढै वेगारि ॥ भै विचि धरती दबी भारि ॥ भै विचि इंदु फिरै सिर भारि ॥ भै विचि राजा धरम दुआरु ॥ भै विचि सूरजु भै विचि चंदु ॥ कोह करोड़ी चलत न अंतु ॥ भै विचि सिध बुध सुर नाथ ॥ भै विचि आडाणे आकास ॥ भै विचि जोध महाबल सूर ॥ भै विचि आवहि जावहि पूर ॥ सगलिआ भउ लिखिआ सिरि लेखु ॥ नानक निरभउ निरंकारु सचु एकु ॥१॥
अर्थ :-हवा सदा ही भगवान के भय में चल रही है। लाखों नदियाँ भी भय में ही बह रही हैं। आग जो सेवा कर रही है, यह भी भगवान के भय में ही है। सारी धरती भगवान के भय के कारण ही भार निचे दबी पड़ी है। भगवान के भय में इंद्र राजा सिर के भार घूम रहा है (भावार्थ, मेघ उस की रजा में ही उॅड रहे हैं)। धर्म-राज का दरबार भी भगवान के भय में है। सूरज भी और चंद्रमा भी भगवान के हुक्म में हैं, करोड़ों कोहाँ चलचलते हुए भी उस के रास्ते में रुकावट नहीं आती। सिध, बुध, देवते और नाथ-सारे भगवान के भय में हैं। यह उॅपर तने हुए अकाश (जो दीखते हैं, यह भी) भय में ही हैं। बड़े बड़े बल वाले योद्धे और सूरमे सब भगवान के भय में हैं। पूरे के पूरे जीव जो जगत में जन्मते और मरते हैं, सब भय में हैं। सारे ही जीवों के माथे पर भउ-रूप लेख लिखा हुआ है, भावार्थ, भगवान का नियम ही ऐसा है कि सारे उस के भय में हैं। हे नानक ! केवल एक सच्चा निरंकार ही भय-रहित है।1।