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परमज्ञानी साधु की कथा से जानिए किस तरह छोड़े ‘मैं’ का साथ

एक परमज्ञानी साधू थे। एक दिन एक व्यक्ति उनके पास पहुंचकर बोला, ‘मैं संन्यास लेना चाहता हूं। इसके लिए मैंने अपने घर-परिवार, रिश्ते-नाते सब को तिलांजलि दे दी है। साधू ने पूछा, ‘क्या तुम बिल्कुल अकेले हो? तुम्हारे साथ वास्तव में कोई नहीं है। व्यक्ति बोला,‘आप मेरे आगे-पीछे देख लीजिए, आपको कोई नहीं मिलेगा।

साधू बोले,‘अपनी आंखें बंद करो। अंदर झांककर देखो कि वहां कोई और तो नहीं है? जाओ, कुछ देर के लिए वटवृक्ष की छाया में बैठकर सोचो। थोड़ी देर बाद आना।’ वह व्यक्ति वटवृक्ष की छाया में बैठकर ध्यान करने लगा। जब उसने आंखें बंद कीं तो उसे अपने वृद्ध माता-पिता, पत्नी और बच्चों की छवि नजर आने लगी। वह चिंतित हो गया।

घबराकर उसने अपनी आंखें खोलीं तो साधू को अपने पास खड़ा पाया। व्यक्ति ने कहा, ‘मैं तो अपना परिवार, नाते-रिश्ते सब पीछे छोड़ आया था, लेकिन यहां पर आंखें बंद करते ही उनकी छवि सामने घूम रही है। इस पर साधू बोले,‘ध्यानमग्न होकर उन व्यक्तियों को अपने दिमाग से निकालने का प्रयत्न करो।

कुछ देर बाद मेरे पास आना।’ दो घंटे बाद युवक ने साधू का दरवाजा खटखटाया तो साधू बोले,‘कौन है?’ युवक बोला,‘मैं हूं। साधू ने कहा, अभी भी तुम अकेले नहीं हो। तुम्हारा मैं तुम्हारे साथ है। अगर तुम इस मैं और भीड़ को छोड़ सको तो फिर यहां आने की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। तुम मैं से मुक्ति पा लो तो फिर संन्यास लेने का भी कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। व्यक्ति ने साधू की बात समझ ली।

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