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जानिए अग्निदेव के अवतार श्री वल्लभाचार्य से जुड़ी कुछ खास बातें

श्री वल्लभाचार्य का जन्म विक्रम संवत् 1535, वैशाख कृष्ण एकादशी को चम्पारण्य में हुआ था। इनकी माता का नाम इलम्मा तथा इनके पिता का नाम श्रीलक्ष्मण भट्ट था। इनके पिता सोमयज्ञ की पूर्णाहुति पर काशी में एक लाख ब्राह्मणों को भोजन कराने जा रहे थे, उसी समय रास्ते में चम्पारण्य में श्रीवल्लभाचार्य का जन्म हुआ.

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श्री वल्लभाचार्य का जन्म विक्रम संवत् 1535, वैशाख कृष्ण एकादशी को चम्पारण्य में हुआ था। इनकी माता का नाम इलम्मा तथा इनके पिता का नाम श्रीलक्ष्मण भट्ट था। इनके पिता सोमयज्ञ की पूर्णाहुति पर काशी में एक लाख ब्राह्मणों को भोजन कराने जा रहे थे, उसी समय रास्ते में चम्पारण्य में श्रीवल्लभाचार्य का जन्म हुआ था। इनके अनुयायी इन्हें अग्निदेव का अवतार मानते हैं। उपनयन संस्कार के बाद इन्होंने काशी में श्रीमाधवेन्द्रपुरी से वेद-शास्त्रों का अध्ययन किया।

ग्यारह वर्ष की अल्पायु में ही इन्होंने वेद, उपनिषद्, व्याकरण आदि में पाण्डित्य प्राप्त कर लिया। उसके बाद श्रीवल्लभाचार्य तीर्थाटन के लिए चल दिए। श्रीवल्लभाचार्य ने विजय नगर के राजा कृष्णदेव की सभा में उपस्थित होकर वहां के बड़े-बड़े विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। वहीं इन्हें वैष्णवाचार्य की उपाधि प्राप्त हुई। राजा कृष्ण देव ने स्वर्ण-सिंहासन पर बैठाकर इनका सविधि पूजन किया। पुरस्कार में इन्हें बहुत-सी स्वर्णमुद्राएं प्राप्त हुई, जिनको इन्होंने वहां के विद्वान ब्राह्मणों में वितरित करा दिया।

विजय नगर से चलकर श्रीवल्लभाचार्य उज्जैन आए और वहां शिप्रा के तट पर इन्होंने एक पीपल के वृक्ष के नीचे साधना की। वह स्थान आज भी इनको बैठक के नाम से प्रसिद्ध है। इन्होंने वृंदावन, गिरिराज आदि कई स्थानों में रहकर भगवान श्रीकृष्ण की आराधना की। अनेक बार इन्हें भगवान श्रीकृष्ण का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ। इनके जीवनकाल में ऐसी अनेक घटनाएं हुई, जिन्हें सुनकर महान आश्चर्य होता है।

एक बार की बात है-एक सज्जन शालिग्राम शिला और भगवान की प्रतिमा दोनों की एक साथ पूजा करते थे। वे शिला से प्रतिमा को कनिष्ठ श्रेणी को समझते थे। श्रीवल्लभाचार्य ने उन्हें समझाया कि भगवद-विग्रह में भेदबुद्धि अनुचित है। इस पर सज्जन ने आचार्य के सुझाव को अपना अपमान समझा और अहंकार में शालिग्राम शिला को रात में प्रतिमा के ऊपर रख दिया। प्रात:काल जब उन्होंने देखा तो प्रतिमा के ऊपर रखी हुई शालग्राम शिला चूर-चूर हो गई थी।

इस घटना को देखकर उनके मन में पश्चाताप का उदय हुआ और उन्होंने श्रीवल्लभाचार्य से अपनी भूल के लिए क्षमा-याचना की। आचार्य श्री ने उन्हें चूर्ण-शिला को भगवान के चरणामृत में भिगोकर गोली बनाने का आदेश दिया। ऐसा करने पर शालग्राम-शिला पूर्ववत् हो गई। कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण ही इनके यहां विट्ठल के रूप में पुत्र बनकर प्रकट हुए थे।

श्रीवल्लभाचार्य ने लोक-कल्याण के उद्देश्य से अनेक ग्रंथों की रचना की। अपने जीवन के अंतिम समय में काशी में निवास करते थे। एक दिन ये जब हनुमान घाट पर स्नान कर रहे थे, उसी समय वहां एक ज्योति प्रकट हुई और देखते-ही-देखते श्रीवल्लभाचार्य का शरीर उस ज्योति में ऊपर उठकर आकाश में विलीन हो गया। इस प्रकार विक्रम संवत 1587 में 52 वर्ष की अवस्था में अनेक नर-नारियों को भक्तिपथ का पथिक बनाकर श्रीवल्लभाचार्य ने अपनी लौकिक लीला का संवरण किया।

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