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हुक्मनामा श्री हरिमंदिर साहिब जी 02 फरवरी 2024

सलोकु मः ३ ॥ रैणाइर माहि अनंतु है कूड़ी आवै जाइ ॥ भाणै चलै आपणै बहुती लहै सजाइ ॥ रैणाइर महि सभु किछु है करमी पलै पाइ ॥ नानक नउ निधि पाईऐ जे चलै तिसै रजाइ ॥१॥ {पन्ना 949}


पद्अर्थ: रैणाइर = (सं: रय+नार। रय = नदी का बहाव। नार = नीर, जल) नदियों का सारा जल, समुंद्र। कूड़ी = झूठ (नाशवंत पदार्थों) में लगी हुई। करमी = मेहर से। नउनिधि = नौ खजाने (प्रभू का नाम जो, मानो, सृष्टि के नौ खजाने हैं)।


अर्थ: (इस संसार-) समुंद्र में बेअंत प्रभू स्वयं बस रहा है, पर (उस ‘अनंत’ को छोड़ के) नाशवंत पदार्थों में लगी हुई जिंद पैदा होती-मरती रहती है। जो मनुष्य अपनी मर्जी के अनुसार चलता है उसको बहुत दुख प्राप्त होता है (क्योंकि वह ‘अनंत’ को छोड़ के नाशवंत पदार्थों के पीछे दौड़ता है); सब कुछ इस सागर में मौजूद है, पर प्रभू की मेहर से मिलता है। हे नानक! मनुष्य को सारे ही नौ खजाने मिल जाते हैं अगर मनुष्य (इस सागर में व्यापक प्रभू की) रजा में चले।1।


मः ३ ॥ सहजे सतिगुरु न सेविओ विचि हउमै जनमि बिनासु ॥ रसना हरि रसु न चखिओ कमलु न होइओ परगासु ॥ बिखु खाधी मनमुखु मुआ माइआ मोहि विणासु ॥ इकसु हरि के नाम विणु ध्रिगु जीवणु ध्रिगु वासु ॥ जा आपे नदरि करे प्रभु सचा ता होवै दासनि दासु ॥ ता अनदिनु सेवा करे सतिगुरू की कबहि न छोडै पासु ॥ जिउ जल महि कमलु अलिपतो वरतै तिउ विचे गिरह उदासु ॥ जन नानक करे कराइआ सभु को जिउ भावै तिव हरि गुणतासु ॥२॥ {पन्ना 949}


पद्अर्थ: सहजे = सहज अवस्था में, अडोलता में, सिदक श्रद्धा से। जनमि = जनम के, पैदा हो के। रसना = जीभ (से)। परगासु = खिलाव। मोहि = मोह में। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। वासु = बसेवा, वासा। दासनि दासु = दासों का दास। अनदिनु = हर रोज, नित्य। पासु = पासा, साथ। अलिपतो = अलिप्त, निर्लिप, निराला। गिरहु = गृहस्त। गुणतासु = गुणों का खजाना।


अर्थ: जो मनुष्य सिदक-श्रद्धा से सतिगुरू के हुकम में नहीं चला, वह अहंकार में (रह के) (जगत में) जनम ले के (जीवन) वयर्थ गवा गया; जिसने जीभ से प्रभू के नाम का आनंद नहीं लिया उसका हृदय-रूप कमल पुष्प नहीं खिला।
अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (विकारों की) विष खाता रहा, (असल जीवन की ओर से) मरा ही रहा और माया के मोह में उसकी जिंदगी तबाह हो गई। एक प्रभू का नाम सिमरन बिना (जगत में) जीना-बसना धिक्कारयोग्य है।
जब सच्चा प्रभू स्वयं ही मेहर की नजर करता है तो मनुष्य (प्रभू के) सेवकों का सेवक बन जाता है, नित्य सतिगुरू के हुकम में चलता है, कभी गुरू का पल्ला नहीं छोड़ता, (फिर) वह गृहस्त में रहता हुआ भी ऐसे उपराम सा रहता है जैसे पानी में (उगा हुआ) कमल-फूल (पानी के असर से) बचा रहता है।
हे दास नानक! जैसे गुणों के खजाने परमात्मा को अच्छा लगता है वैसे हरेक जीव उसका कराया हुआ (जो वह करवाना चाहता है) ही करता है।2।
पउड़ी ॥ छतीह जुग गुबारु सा आपे गणत कीनी ॥ आपे स्रिसटि सभ साजीअनु आपि मति दीनी ॥ सिम्रिति सासत साजिअनु पाप पुंन गणत गणीनी ॥ जिसु बुझाए सो बुझसी सचै सबदि पतीनी ॥ सभु आपे आपि वरतदा आपे बखसि मिलाई ॥७॥ {पन्ना 949}

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