सलोकु मः ३ ॥ ब्रहमु बिंदै तिस दा ब्रहमतु रहै एक सबदि लिव लाइ ॥ नव निधी अठारह सिधी पिछै लगीआ फिरहि जो हरि हिरदै सदा वसाइ ॥ बिनु सतिगुर नाउ न पाईऐ बुझहु करि वीचारु ॥ नानक पूरै भागि सतिगुरु मिलै सुखु पाए जुग चारि ॥१॥
जो मनुख केवल गुरु-शब्द के प्रति बिरती जोड़ कर ब्रह्म को पहचानता है, उस का ब्रह्म-पण बना रहता है, जो मनुख हरी को हिर्दय में बसी, नौं निधियां और अठारां सिध्यन उस के पीछे लगी फिरती है। विचार कर के समझो, सतगुरु के बिना नाम नहीं मिलता, हे नानक! पूरे भाग्य से जिस को सतगुरु मिले वह चारो जुगों में (भाव, हमेशां) सुख पता है।१।