सलोक मः ३ ॥ सभना का सहु एकु है सद ही रहै हजूरि ॥ नानक हुकमु न मंनई ता घर ही अंदरि दूरि ॥ हुकमु भी तिन्हा मनाइसी जिन्ह कउ नदरि करेइ ॥ हुकमु मंनि सुखु पाइआ प्रेम सुहागणि होइ ॥१॥ मः ३ ॥ रैणि सबाई जलि मुई कंत न लाइओ भाउ ॥ नानक सुखि वसनि सोहागणी जिन्ह पिआरा पुरखु हरि राउ ॥२॥ पउड़ी ॥ सभु जगु फिरि मै देखिआ हरि इको दाता ॥ उपाइ कितै न पाईऐ हरि करम बिधाता ॥ गुर सबदी हरि मनि वसै हरि सहजे जाता ॥ अंदरहु त्रिसना अगनि बुझी हरि अम्रित सरि नाता ॥ वडी वडिआई वडे की गुरमुखि बोलाता ॥६॥
सब (जीव-स्त्रीओं) का खसम एक परमात्मा है जो सदा ही इन के अंग संग रहता है, परन्तु, हे नानक! जो (जो जीव-इस्त्री) उस का हुकम नहीं मानती (उस की रजा में नहीं चलती) उस को वह खसम हृदय-घर में बस्ता हुआ भी कहीं दूर बस्ता लगता है। वह हुकम भी उन्ही (जीव-स्त्रिओं) से मनवाता है जिन पर कृपा की नज़र करता है; जिस ने हुकम मान कर सुख हसील किया है, वह प्रेम वाली आत्मा अच्छे भाग्य वाली हो जाती है॥१॥ जिस जीव-स्त्री ने कंत प्रभु से प्यार नहीं किया, वह (जिन्दगी रूप) सारी रात जल मरी (उस की सारी उम्र दुखों में निकली)। गुरू नानक जी कहते हैं, परन्तु, हे नानक! जिन का प्यार अकाल पुरख (खसम) है वह भाग्य वाली सुख के साथ सोती हैं (जिन्दगी की रात सुख के साथ बिताती हैं)॥२॥ मैने सारा संसार खोज कर देख लिया है, एक परमात्मा ही सरे जीवों को दातें देने वाला है; जीव के कार्मों की बिध बनाने वाला वह प्रभु किसी चतुराई सयानप से नहीं मिलता; सिर्फ गुरु के शब्द द्वारा हृदय में बस्ता है और आसानी से पहचाना जा सकता है। जो मनुख प्रभु के नाम-अमृत के सरोवर में नहाता है उस के अंदर से तृष्णा की अग्नि बुझ जाती है; यह उस बड़े की वडयाई है कि (जीव से) गुरु के रास्ते अपनी सिफत सलाह करता है॥६॥