वडहंसु महला ५ घरु २
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मेरै अंतरि लोचा मिलण की पिआरे हउ किउ पाई गुर पूरे ॥ जे सउ खेल खेलाईऐ बालकु रहि न सकै बिनु खीरे ॥ मेरै अंतरि भुख न उतरै अमाली जे सउ भोजन मै नीरे ॥ मेरै मनि तनि प्रेमु पिरम का बिनु दरसन किउ मनु धीरे॥१॥ सुणि सजण मेरे प्रीतम भाई मै मेलिहु मित्रु सुखदाता ॥ ओहु जीअ की मेरी सभ बेदन जाणै नित सुणावै हरि कीआ बाता ॥ हउ इकु खिनु तिसु बिनु रहि न सका जिउ चात्रिकु जल कउ बिललाता ॥ हउ किआ गुण तेरे सारि समाली मै निरगुण कउरखि लेता ॥२॥
राग वडहंस , घर २ में गुरु अर्जनदेव जी की बाणी। अकाल पुरख एक है और सतगुरु की कृपा द्वारा मिलता है। हे प्यारे! मेरे मन में (गुरु को) मिलने की तीव्र इच्छा है, मैं किस प्रकार पूरे गुरु को खोजूं ?अगर बालक को सौ खेलों के साथ खिलाया जाए (बहलाया जाये), तो भी वह दूध के बिना नहीं रह सकता। (उसी प्रकार) हे सखी! अगर मुझ सौ भोजन भी दिए जाएँ, तो भी मेरे अंदर (बस्ती प्रभु-मिलाप की) भूख ख़त्म नहीं हो सकती। मेरे मन में,मेरे हृदय में प्यारे प्रभु का नाम बस रहा है, और (उस के) दर्शन के बिना मेरा मन शांति हासिल नहीं कर सकता॥१॥ हे मेरे सज्जन! हे मेरे प्यारे भाई! (मेरी विनती) सुन! और मुझे आत्मिक आनंद देने वाला मित्र-गुरु मिला दे। वह (गुरु) मेरी जिंद (जान)की सारी पीड़ा जानता है, और मुझे परमात्मा की सिफत-सलाह की बातें सुनाता है। में उस (परमात्मा) के बिना तनिक भर समय भी नहीं रह सकता (मेरी हालत ऐसी है) जैसे पपीहा बरखा की बूँद की खातिर बिलकता है। (हे प्रभु!) तेरे कौनकौन से गुण याद कर के में अपने हृदय में बसायूँ ?प्रभुआप मुझे गुण-हीन को (सदा) बचा लेते हो॥२॥