रागु सोरठि बाणी भगत नामदे जी की घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
सुख सागरु सुरतर चिंतामनि कामधेनु बसि जा के ॥ चारि पदारथ असट दसा सिधि नव निधि कर तल ता के ॥१॥ हरि हरि हरि न जपहि रसना ॥ अवर सभ तिआगि बचन रचना ॥१॥ रहाउ ॥ नाना खिआन पुरान बेद बिधि चउतीस अखर मांही ॥ बिआस बिचारि कहिओ परमारथु राम नाम सरि नाही ॥२॥ सहज समाधि उपाधि रहत फुनि बडै भागि लिव लागी ॥ कहि रविदास प्रगासु रिदै धरि जनम मरन भै भागी ॥३॥४॥
अर्थ : (हे पण्डित!) जो प्रभू सुखों का समुंद्र है, जिस प्रभू के वश में स्वर्ग के पाँचों वृक्ष, चिंतामणि और कामधेनु हैं, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष चारों पदार्थ, अठारहों सिद्धियां और नौ निधियां ये सब उसी के हाथों की तलियों पर हैं।1।
(हे पण्डित!) तू और सारी फोकियां बातें छोड़ के (अपनी) जीभ से सदा एक परमात्मा का नाम क्यों नहीं सिमरता?।1। रहाउ।
(हे पण्डित!) पुराणों के अनेक किस्म के प्रसंग, वेदों की बताई हुई विधियां, ये सब वाक्य-रचना ही हैं (अनुभवी ज्ञान नहीं जो प्रभू की रचना में जुड़ने से हृदय में पैदा होता है)। (हे पण्डित! वेदों के खोजी) व्यास ऋषि ने सोच-विचार के यही धर्म-तत्व बताया है कि (इन पुस्तकों के पाठ आदि) परमात्मा के नाम का सिमरन करने के की बराबरी नहीं कर सकते। (फिर तू क्यों नाम नहीं सिमरता?)।2।
रविदास कहता है– बड़ी किस्मत से जिस मनुष्य की सुरति प्रभू-चरणों में जुड़ती है उसका मन आत्मिक अडोलता में टिका रहता है। कोई विकार उसमें नहीं उठता, वह मनुष्य अपने हृदय में रोशनी प्राप्त करता है, और, जनम-मरण (भाव, सारी उम्र) के उसके डर नाश हो जाते हैं।3।4।