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सनातन संस्कृति का चिरन्तन सत्य है ब्रज भूमि, जानिए इससे जुड़ी कुछ खास बातें

भ्रज भूमि केवल तीर्थ क्षेत्र का ही नाम नहीं है बल्कि संस्कृति की चिरन्तरता का ठोस सत्य है। हजारों सालों का इतिहास अपने अंक में समेटे ब्रज भूमि भारत की गहरी धार्मिक जड़ों का वट वृक्ष है जिसकी कई शाखाएं-प्रशाखाएं फैली हैं। भौगोलिक दृष्टि से मानचित्र धरातल पर ब्रज नाम का कोई क्षेत्र नहीं है.

भ्रज भूमि केवल तीर्थ क्षेत्र का ही नाम नहीं है बल्कि संस्कृति की चिरन्तरता का ठोस सत्य है। हजारों सालों का इतिहास अपने अंक में समेटे ब्रज भूमि भारत की गहरी धार्मिक जड़ों का वट वृक्ष है जिसकी कई शाखाएं-प्रशाखाएं फैली हैं। भौगोलिक दृष्टि से मानचित्र धरातल पर ब्रज नाम का कोई क्षेत्र नहीं है मगर सनातन मतावलम्बियों के हृदय में इसका वजूद है। श्रीकृष्ण के जन्म लेने तथा पश्चात् लीलाओं के क्रमिक विकास किए जाने के कारण तत्कालीन क्षेत्र विशेष धार्मिक आस्था से जुड़ गए। कालान्तर में अपने आस-पास के क्षेत्रों को भी वे सांस्कृतिक रूप से प्रभावित करते रहे, फलस्वरूप कृष्ण भक्ति से जुड़े ये क्षेत्र समय अन्तराल पर ब्रज क्षेत्र का हिस्सा बन गए।

हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश के कई क्षेत्र ब्रज का अंग माने जाते हैं। इनमें गुड़गांव, एटा, भरतपुर, डीग, कामवन, मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, दाऊजी, गिरिराज पर्वत, रमनरेत्ती, बरसाना, नन्दगांव, ग्वालियर, आगरा, मेरठ आदि प्रमुख हैं। गर्ग संहिता के वृन्दावन खण्ड के प्रथम अध्याय में यह उल्लिखित है कि दिव्य मथुरा में जहां भी श्रीकृष्ण भगवान ने जन्म लेकर लीलाएं की थीं, वहां समस्त वनों में वृन्दावन उत्तम है जो बैकुण्ठ से भी पवित्र धाम है। वराह पुराण से ब्रज की पौराणिकता सिद्ध होती है।

आदि पुरुष मनु ने भी यमुना के तट को ही अपना तपस्या का स्थल चुना था। बालक धु्रव ने मधुवन में भगवान विष्णु की आराधना की थी। चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य जी आदि महापुरुषों ने भी ब्रज क्षेत्र को ही अपना आराध्य क्षेत्र मानते हुए परिक्रमाएं कीं। वस्तुत: ब्रज क्षेत्र सनातन मतावलम्बियों की अगाध आस्था का क्षेत्र है। प्राचीन ब्रज में बारह वन, चौबीस उपवन तथा पांच पर्वतों का अस्तित्व बताया गया है। मध्यकालीन कवि सूरदास ने भी इस बात को उद्घाटित किया है कि ‘चौरासी ब्रज कोस निरन्तर खेलत है वन मोहन।’ पूरे वर्ष भर में देश से लाखों नर-नारी ब्रज क्षेत्र के तीर्थों की यात्रा करते हैं।

सनातन मतावलंबी दो प्रकार से अपनी यात्रा को अंजाम देते हैं, एक प्रकार तो वह है जिसमें मोटर, रेल, बस द्वारा यात्रा की जाती है, दूसरे प्रकार से वह जिसमें आस्तिक पद यात्रा करता है। यात्र में भी एक मत के वे श्रद्धालु होते हैं जो कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए ब्रज क्षेत्र के चौरासी कोस की पदयात्रा करते हैं। अन्य मत के श्रद्धालु वे होते हैं जो एक अथवा एक से अधिक स्थानों की पैदल परिक्रमा करते हैं। हजारों श्रद्धालु ऐसे भी होते हैं जो पूर्व में उल्लिखित दोनों प्रकार की यात्रएं न किए जाने की स्थिति में केवल गोवर्धन पर्वत की यात्रा करते हैं जिसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

यह वही गोवर्धन पर्वत है जिसे इन्द्र के प्रकोप से ब्रजवासियों को बचाने के लिए श्रीकृष्ण भगवान ने अपनी अंगुली पर धारण किया था। विष्णु पुराण, महाभारत, श्रीमद भागवत, स्कन्ध पुराण सहित अन्यान्य धर्म ग्रंथों में ब्रज तथा ब्रज से सम्बन्धित कथाक्रमों का उल्लेख है। ब्रज यात्र के लिए वैष्णव मत में भक्तों से आचार संहिता की पालना की अपेक्षा रखी जाती है जिसके अन्तर्गत ब्रज क्षेत्र में यात्रा करने वाले आस्तिकों से यह अपेक्षा रखी जाती है कि वे धरती पर सोएं, हमेशा नहाएं, वासना से दूर रहें, चरण पदों का त्याग करें अर्थात् नंगे पांव यात्रा करें, प्रतिदिन पाठ-पूजा करें, तथा श्रवण करें, सात्विक व फलाहार का सेवन करें, लोभ, मोह, मद दुर्गुणों सहित मिथ्या भाषण से दूर रहें आदि छत्तीस नियम निर्धारित हैं।

श्री चैतन्य महाप्रभु तथा वल्लभाचार्य जी महाराज द्वारा ब्रज की पद यात्रा की परिपाटी शुरू की गई थी। तद्न्तर उनके उत्तराधिकारियों द्वारा यात्रा को व्यवस्थित किया गया। कालान्तर में पद यात्रा के उक्त अभियानों ने परम्परा का रूप धारण कर लिया। ब्रज में पद यात्राओं का दौर वर्ष भर चलता रहता है। मान्यता है कि यात्रा में अभाव ग्रस्त होकर रहने पर संन्यास आश्रम का फल मिलता है अगर आस्तिक हाथ में बांस की लाठी लेकर चलता है तो उसे वानप्रस्थ आश्रम का फल मिलता है। बरसाने की लट्ठमार होली, दाऊजी का हुरंगा, फाल्गुन में पण्डे का जलती हुई होली में प्रवेश, दीपावली के अवसर पर गोवर्धन मानसी गंगा पर दीपदान, अन्नकूट दर्शन, विश्राम घाट मथुरा पर यम-द्वितीया के अवसर पर भाई-बहनों का एक साथ स्नान करना, फाल्गुन मास में ब्रज की सप्तरंगी होली, वृंदावन में रंगजी मंदिर का रथयात्रा मेला, बसंती कमरे के दर्शन, सावन-भादों के झूले, हिंडोलों के दर्शन, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी समारोह आदि सहित अन्यान्य पर्व, उत्सव बरबस श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकृष्ट करने से नहीं चूकते और यही कारण है कि नानाविध पर्वों, उत्सवों के कारण, भक्तगणों का ब्रज क्षेत्र में वर्ष-भर आवागमन लगा रहता है।

ब्रज वह क्षेत्र है जिसके धूलि कण मस्तक पर लगाने योग्य हैं। ब्रज क्षेत्र में मथुरा प्रमुख केन्द्र है। मथुरा के अलावा वृंदावन, गोकुल, दाऊजी, बरसाना, नंदगांव, गोवर्धन पर्वत महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल हैं। उक्त स्थानों के अलावा भी अन्य अनेक दर्शनीय स्थल हैं जिनका किसी न किसी प्रकार से श्रीकृष्ण कथा-क्र म से जुड़ाव है। ब्रज का मुख्य केंद्र मथुरा देश के अन्य भागों से रेल एवं सड़क मार्ग दोनों से सीधा जुड़ा हुआ है। मथुरा को केंद्र मानते हुए आस्तिक ब्रज के महत्वपूर्ण स्थलों की सप्ताह भर में यात्रा कर सकता है। ब्रज क्षेत्र में खाने-पीने की उत्तम व्यवस्था सहित ठहरने की अपेक्षानुसार व्यवस्था है। उचित मानदेय देकर गाइड को साथ लेकर चलने पर यात्रा में और अधिक आनंद आता है।

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