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धरती पर गंगा का अवतरण, जानिए इससे जुड़ी कथा के बारे में

सतयुग में सभी तीर्थ महत्वशाली थे, त्रेता में पुष्कर क्षेत्र का महात्म्य अधिक था। द्वापर में कुरुक्षेत्र महत्वपूर्ण माना गया है, कलियुग में गंगा का विशेष महत्व है। इसका कारण यह है कि कलियुग में अन्य सभी तीर्थ स्वभवत: अपने महत्व एवं पराक्रम को गंगा में छोड़ देते हैं, किंतु ये गंगा अपने तेज को कहीं नहीं छोड़ती। गंगा जी के परम पुनीत जल-कण से युक्त वायु के स्पर्शमात्र से ही पापी मनुष्य भी परम गति प्राप्त करते हैं।

गंगा जल की महिमा
जिस गंगा का जन्म भगवान विष्णु के पवित्र पदकमलों से हुआ हो, जिस गंगा को ब्रह्माण्ड के रचयिता ब्रह्मा जी ने अपने कमंडल में रख अपने को धन्य माना हो, जिस देवी गंगा को भगवान शंकर ने अपने मस्तक पर धारण कर गर्व का अनुभव किया हो, उस पापनाशिनी मां गंगा की महिमा अपरम्पार है। गंगा जल शारीरिक एवं मानसिक क्लेशों का पूर्णत: विनाशक है। गंगा जल वास्तव में ही बड़ा चमत्कारिक है। वर्षों पड़ा रहने पर भी यह खराब नहीं होता। आइना-एअकबरी में भी इस बात का उल्लेख आता है कि बादशाह अकबर भी गंगा जल का उपयोग करते थे। आज भी प्रत्येक हिन्दू मृत्युशैया पर पड़े हुए एक बूंद गंगा जल की कामना करता है। भौगोलिक दृष्टि से इस नदी ने उत्तरी भरत को समृद्ध बनाया है। अनगिनत वर्षों से मिट्टी ढो-ढोकर गंगा जल ने उत्तरी भरत को दोआबा बनाया। गंगा जल के कारण इस पर जीवन पनपा और इसे अमृत जैसा जल मिला। भरत को कृषि प्रधान देश बनाने का श्रेय गंगा जल को ही है।

नदी से बनी देवी गंगा
गंगा जल को रत्नों से धुला माना जाता है। गंगा जी के नाम का स्मरण करने मात्र से पातक, कीर्तन से अतिपातक, दर्शन से महापातक भी नष्ट हो जाते हैं। पितृगम अपने वंशजों से कामना करते रहते हैं कि वे गंगा में स्नान कर उक्त लोकपावन जल से हमारा तर्पण करें। शास्त्रों में कहा गया है कि गुण ही पूजनीय होते हैं, जब ये गुण स्थायी हो जाते हैं तो पूजा की परम्परा प्रारंभ हो जाती है। इसके साथ ही कई कथाएं एवं महिमाएं प्रचलन में आ जाती हैं। इन कथाओं में जब गंगा को देवी स्वरूप मान लिया गया तो उसका मेल व्रतों और त्यौहारों के साथ जोड़ दिया गया। इन्हीं पर्वों में एक पर्व गंगा जयंती आज लाखों लोगों द्वारा श्रद्धाभाव से मनाई जाती है। अब गंगा एक नदी मात्र न रहकर हमारी संस्कृति की प्रतीक बन गई है। शिलालेखों में गंगा की महिमा, ध्वजाओं पर गंगा का चिन्ह, देव- मंदिरों में गंगा की मनोहर मूर्तियां, इन सब बातों से गंगा केवल एक नदी न रहकर एक देवी बन गई है। देवी गंगा के भक्तों ने पुराणों से इसकी कथाएं खोज निकालीं।

धरती पर गंगा का अवतरण
एक बार राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया और उसके लिए घोड़ा छोड़ा। देवराज इन्द्र ने अश्वमेघ यज्ञ के उस घोड़े को चुराकर पाताल में ले जाकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया, परंतु ध्यानावस्थित मुनि इस बात को न जान सके। सगर के साठ हजार अहंकारी पुत्रों ने पृथ्वी का कोना-कोना छान मारा परंतु घोड़े का कहीं पता न चल पाया। अंत में उन लोगों ने पृथ्वी से पाताल तक मार्ग खोद डाला और कपिल मुनि के आश्रम में पहुंच गए। वहां घोड़ा बंधा देख क्रोधित होकर कपिल मुनि को मारने दौड़े। तपस्या में बाधा पड़ने पर मुनि ने अपनी आंखें खोलीं। उनके तेज से सगर के साठ हजार उद्दंड पुत्र तत्काल भस्म हो गए। गरुड़ के द्वारा इस घटना की जानकारी मिलने पर सगर के पौत्र अंशुमन कपिल मुनि के आश्रम में गए तथा उनकी स्तुति की। कपिल मुनि उनके विनय से प्रसन्न होकर बोलेअंशुमन! घोड़ा ले जाओ और अपने पितामह का यज्ञ पूरा कराओ।

ये सगर पुत्र उद्दंड अहंकारी और अधार्मिक थे, इनकी मुक्ति तभी हो सकती है जब गंगा जल से इनकी राख का स्पर्श हो। अंशुमन, महाराज दिलीप और फिर भगीरथ ने ब्रह्मा जी की घोर तपस्या की ताकि गंगा जी धरती पर अवतरित हों। ब्रह्मा जी ने कहा कि गंगा धरती पर तो आ सकती है परंतु उनके वेग को रोकने की क्षमता भगवान शंकर में ही है। भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न हो भगवान शिव ने गंगा को अपनी जटाओं में रोक लिया। उसमें से एक जटा को पृथ्वी की ओर छोड़ दिया। भगवान शंकर के आदेश पर देवी गंगा भगीरथ के पीछे-पीछे चली। भगीरथ देवी गंगा की स्तुति करते हुए उसे उस स्थल पर ले गए जहां उनके पूर्वज राजा सगर के पुत्र भस्म हुए थे। पवित्र गंगा जल के स्पर्श मात्र से ही साठ हजार राजकुमार बैकुंठधाम चले गए। भगीरथ अपने पूर्वजों का उद्धार करके धन्य हो गए। राजा भगीरथ देवी गंगा को पृथ्वी लोक लेकर आए थे, इसलिए इसका नाम भगीरथी भी पड़ा। वास्तव में देवी गंगा की प्रमुख धारा का उद्गम स्थान गंगोत्री क्षेत्र में गौमुख है।

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