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मनुष्य जीवन की संपूर्ण गतिविधियों का संचालन करता है ‘मन’

मन को इंद्रियों का स्वामी माना गया है। मन के भावों का तथा विचारों का प्रभाव शरीर और आत्मा तथा संपर्क में आने वाले प्राणी मात्र पर पड़ता है। अज्ञान, अविद्या तथा तामसिक वृतियां मन की एकाग्रता को भंग करके उसे संशयग्रस्त बना देती हैं। संशय हमारे मन की पवित्रता में बाधक माना गया है। संशय ग्रस्त मन सदा ही भय एवं नकारात्मक चिंतन का जनक है। हमारे शास्त्रों में संशय की परिधि में जकड़े हुए मानस पटल को भार के समान माना है।

मन की शांति तथा मनुष्य के उल्लास में संशय को प्रमुख रुकावट माना गया है आध्यात्मिक आनंद तो दूर की बात है संशय युक्त मनुष्य अपने सांसारिक सुख की भी अनुभूति नहीं कर पाता। योगेश्वर भगवान कृष्ण ने गीता के चौथे अध्याय में बताया है कि ज्ञान तथा श्रद्धा से शून्य संदेह ग्रस्त मनुष्य अपने जीवन में कभी भी आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर सकता।

प्रत्येक बात में जो मनुष्य संशय करता है ऐसा मनुष्य मानसिक तथा आत्मिक शांति में से सर्वथा वंचित रहता है। मन का संशयालु स्वभाव मनुष्य को केवल तनाव, चिंता एवं उद्विग्नता ही देता है। श्री कृष्ण ने अज्ञान से उत्पन्न होने वाले हृदय में बैठे हुए संशय को मनुष्य की आध्यात्मिक साधना में सबसे बड़ी व्याधि माना है। संतुलित तथा उत्कृष्ट चिंतन से परिपूर्ण मन ही मनुष्य जीवन की सर्वांगीण उन्नति का आधार स्तंभ है। संदेह ग्रस्त मन में कभी भी सकारात्मक तथा श्रेष्ठ संकल्पों का सृजन नहीं होता।

मन के संशय की उहापोह में उलझा हुआ मनुष्य कभी भी कल्याण के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता। जहां संशय है वहां कभी भी ठोस एवं श्रेष्ठ निर्णय लेने की क्षमता नहीं उपज सकती। हमारे आध्यात्मिक ग्रंथों ने मुक्ति और बंधन को मन पर ही आश्रित माना है। दिव्य सात्विक विचार संपदा से पवित्र हुआ मन मनुष्य का परम हितकारी बंधु है एवं मुक्ति के द्वार खोलने वाला है। संशय तथा निकृष्ट संपदा से युक्त मन मनुष्य को पतन की ओर ले जाता है। सद्ग्रंथों के यथार्थ ज्ञान रूपी अग्नि के माध्यम से इस संशय को भस्म करके ही मनुष्य जीवन में उल्लास और आत्मिक आनन्द की अनुभूति का सामर्थ्य प्राप्त किया जा सकता है।

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