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बांके बिहारी मंदिर के आनंद उत्सव में बहती है श्रद्धा, भक्ति और संगीत की त्रिवेणी

मथुरा: बांकेबिहारी मन्दिर वृन्दावन का मशहूर आनन्द उत्सव 25 फरवरी से शुरू हो रहा है। इसमें मन्दिर में श्रद्धा, भक्ति और संगीत की त्रिवेणी प्रवाहित होती रहती है। इसे भक्तों के कल्याण के लिये कन्नौज के राजा द्वारा 125 वर्ष पूर्व प्रारंभ कराया गया था। कन्नौज के राजा ने इसकी शुरूवात मन्दिर के तत्कालीन राजभोग.

मथुरा: बांकेबिहारी मन्दिर वृन्दावन का मशहूर आनन्द उत्सव 25 फरवरी से शुरू हो रहा है। इसमें मन्दिर में श्रद्धा, भक्ति और संगीत की त्रिवेणी प्रवाहित होती रहती है। इसे भक्तों के कल्याण के लिये कन्नौज के राजा द्वारा 125 वर्ष पूर्व प्रारंभ कराया गया था। कन्नौज के राजा ने इसकी शुरूवात मन्दिर के तत्कालीन राजभोग सेवा अधिकारी ब्रज बिहारी लाल गोस्वामी से कराई थी तथा इस पर आनेवाले खर्च को स्वयं ही वहन किया था। उस समय यह उत्सव एक छोटे रूप में शुरू किया गया था किंतु समय के साथ इसमें परिवर्तन होते गए और बांकेबिहारी मन्दिर की प्रबंध समिति के पूर्व अध्यक्ष दिवंगत डाॅ आनन्द किशोर गोस्वामी ने तो इसे वृहद रूप दिया था।

उन्होने मन्दिर की सजावट को न केवल भव्य रूप दिया था बल्कि देहरी पूजन, संत सेवा ,भक्तों में प्रसाद लुटाने जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से उत्सव को नया कलेवर दिया था । मन्दिर में भक्तों की संख्या बहुत अधिक बढने के कारण सजावट में जहां परिवर्तन किया गया है वही प्रसाद लुटाने की पंरपरा को बन्द कर दिया गया है क्योंकि मन्दिर के जगमोहन से जब फल, मिठाई, वस़्त्र , बांसुरी आदि लुटाए जाते थे तो प्रसाद लेने की लूट मच जाती थी और उसमें दुर्घटना होने का बहुत अधिक खतरा पैदा हो गया था।

मन्दिर के सेवायत आचार्य ज्ञानेन्द्र किशोर गोस्वामी ने बताया कि 15 दिन तक चलनेवाले इस उत्सव का सबसे महत्वपूर्ण भाग बांकेबिहारी मन्दिर के गर्भ गृह में प्रवेश करने या निकलने वाला देहरी पूजन है। द्वापर में कान्हा के कुछ बड़े होने तथा उनके देहरी से बाहर निकलने में कहीं उन्हें चोट लगने से बचाने के लिए उनकी मां यशोदा ने उस समय देहरी पूजन कराया था। वर्तमान पंरपरा उसी की पुनरावृत्ति है। देहरी पूजन में पहले देहरी को पंचामृत से रगड़ रगड़कर साफ किया जाता है और फिर कई केन गुलाब जल से धोया जाता है और फिर विधिवत पूजन होता है जिसमें पुष्प, ठाकुर की पोशाक, बिस्तर, मिठाई, मेवा, केशर आदि ठाकुर को अर्पित किये जाते हैं तथा उन्हें आभूषण धारण कराये जाते हैं।

देहरी के सामने के कटघरे को गुलाबजल से धोया जाता है तथा देहरी से लेकर कटघरे तक को सुगंधित इत्र की 108 बड़ी शीशियों में भरे इत्र से आच्छादित किया जाता है और फिर मन्दिर में लगनेवाले झंडे को लेकर वाद्य यंत्रों के साथ मन्दिर की परिक्रमा की जाती है। देहरी पूजन शुरू होने से लेकर समाप्त होने तक अनवरत एक ओर’’राधे राधे जपो चले आएंगे बिहारी’’, ’’बांकेबिहारी तेरी आरती गाऊं’’ जैसे भक्तिपूर्ण गीतों का संगीत चलता रहता है तो दूसरी ओर वेदमंत्रों से मन्दिर का कोना कोना गूंजता रहता है। राजभेाग आरती के बाद मन्दिर बन्द हो जाता है।वर्तमान में भक्त की इच्छा पर फूल बंगले का भी आयोजन किया जाता है।

संत या साधु सेवा इस उत्सव का अन्य महत्वपूर्ण भाग है इसमें साधुओं और संतो को प्रसाद दिया जाता है तथा यह प्रयास किया जाता है कि प्रसाद वितरण के समय आनेवाला कोई साधु इससे वंचित न रह जाय। इसके बाद भक्तों को प्रसाद खिलाया जाता है। पहले मन्दिर के जगमोहन से चैक तक के भाग में भक्तों को ठाकुर के श्रीचरणों में बिठाकर यह प्रसाद दिया जाता था किंतु भक्तों की संख्या बढ़ जाने से अब यह कार्यक्रम मन्दिर के बाहर होता है। सबसे अंत में भक्तों को भी सांकेतिक प्रसाद घर ले जाने के लिए दिया जाता है। देहरी पूजन से लेकर प्रसाद वितरण तक आनेवाला व्यय किसी न किसी भक्त द्वारा वहन किया जाता है। कुल मिलाकर इस उत्सव में मन्दिर और उसके आसपास भक्ति रस की गंगा प्रवाहित होती रहती है।

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