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भारत अंततः अमेरिका का सहयोगी नहीं बनेगा

संयुक्त राज्य अमेरिका को लंबे समय से उम्मीद है कि भारत, एशिया की एक उभरती ताकत, चीन का मुकाबला करने में उसका महत्वपूर्ण समर्थक के रूप में कार्य करेगा। इस कारण से अमेरिका भी भारत को कुछ आर्थिक और तकनीकी लाभों का भुगतान करने के लिए तैयार है। इस तरह अमेरिका अपनी हिंद-प्रशांत रणनीति को मजबूत कर सकता है। लेकिन, दोनों के बीच तीव्र मतभेदों को देखते हुए, क्या अमेरिका और भारत अंततः सहयोगी बन सकेंगे या नहीं, यह एक खुला प्रश्न है। अपने दीर्घकालिक और मौलिक हितों की रक्षा करना हमेशा भारत की सभी विदेश नीतियों का प्रारंभिक बिंदु है,  भारत अपनी विदेश नीति अपने हितों और ऐतिहासिक स्थिति के अनुसार तय करता है। लेकिन भारत किस दिशा में झुकता है, यह चीन को दबाने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका की कार्रवाइयों के परिणाम को प्रभावित कर सकता है। इसलिए, भारत की विदेश नीति में बदलाव अक्सर अंतरराष्ट्रीय ध्यान आकर्षित करते हैं। कुछ वैचारिक समानताओं के बावजूद, भारत और अमेरिका के बीच विश्वदृष्टि में मूलभूत अंतर हैं। उदाहरण के लिए, शीत युद्ध के दौरान भारत ने अमेरिका का पक्ष लेने से इनकार कर दिया और दुनिया को प्रतिद्वंद्वी मोर्चोंं में विभाजित करने का विरोध किया। इस से भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन का नेता बन गया।

भारत की महान आकांक्षा एक प्रभावशाली स्वतंत्र शक्ति बनने की है, जो उपनिवेशिक शासन से स्वतंत्र विकासमान देशों का नेतृत्व करती है। इसलिए, एक स्वतंत्र विदेश नीति को लागू करना हमेशा भारत का मूल सिद्धांत रहा है। वर्तमान में, दुनिया एक बार फिर दो विरोधी खेमों में बंट गई है, यानी कि अमेरिका के नेतृत्व वाला पश्चिम और चीन और रूस के प्रतिनिधि वाला दूसरा पक्ष। अपने दीर्घकालिन हितों पर ध्यान रखकर, भारत दोनों के बीच चयन नहीं करना चाहता, क्योंकि भारत का मौलिक हित तटस्थता बनाए रखने में निहित है। उधर, भारत के प्रति अमेरिका की मित्रता चीन के प्रति अमेरिका की शत्रुता पर निर्भर है। इसी कारण से अमेरिका भारत को “क्वाड” तंत्र तथा हिन्द-प्रशांत आर्थिक ढांचे में शामिल कराने की पूरी कोशिश कर रहा है। अमेरिका की उम्मीद है कि चीन के बिना विश्व उद्योग श्रृंखला और आपूर्ति श्रृंखला की स्थापना की जाए, और भारत इसमें एक प्रमुख खिलाड़ी बन सके।

विश्लेषकों का आमतौर पर मानना है कि भारत कभी भी अमेरिका का सहयोगी नहीं बनेगा, क्योंकि भारत की गुटनिरपेक्ष और स्वतंत्र कूटनीतिक रणनीति नहीं बदलेगी। इसका मतलब है कि भारत और अमेरिका के बीच मतभेद बने रहेंगे। चीन के मुद्दे पर भी, भारत और अमेरिका पूरी तरह से एक ही मोर्च में नहीं खड़ते हैं। वास्तव में, भारत चीन का सामना करते समय अमेरिका के लिए एक नयी चुनौती बन सकेगा, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय संबंधों को संभालने के लिए भारत की रणनीति 21वीं सदी में वैश्विक कूटनीति की एक प्रमुख दिशा बन जाएगी। शीत युद्ध की रणनीति अब भविष्य की बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था पर लागू नहीं होगी। गुटनिरपेक्षता में भारत के सिद्धांतों को विश्व में अधिक समर्थन प्राप्त होगा और भारत भी अपनी स्वतंत्र कूटनीतिक रणनीति के कारण विश्व राजनीति में एक महत्वपूर्ण ध्रुव बन जाएगा।

(साभार—चाइना मीडिया ग्रुप ,पेइचिंग)

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