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NATO द्वारा “एशिया-प्रशांत सपने” को साकार करना है मुश्किल

नाटो शिखर सम्मेलन 9 जुलाई को वाशिंगटन में शुरू हुआ। इस वर्ष नाटो की स्थापना की 75वीं वर्षगांठ है। अमेरिका ने घोषणा की कि यह “शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से सबसे महत्वाकांक्षी शिखर सम्मेलन” है। हालांकि, पिछले तीन वर्षों के शिखर सम्मेलनों के समान, इस बैठक के एजेंडे में कुछ भी नया नहीं है और अभी भी तीन विषय हैं: सैन्य क्षमताओं को मजबूत करना, यूक्रेन को सहायता देना और वैश्विक साझेदारी योजनाएं बनाना। बैठक से पहले प्रेस कॉन्फ्रेंस में नाटो महासचिव जेन्स स्टोलटेनबर्ग ने कहा, “चीन और अन्य देशों से निपटने के लिए हमें हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपने सहयोगियों के साथ मिलकर काम करने की जरूरत है।” मीडिया में यह व्यापक रूप से माना जाता है कि नाटो, एशिया-प्रशांत में हस्तक्षेप करने और अमेरिकी आधिपत्य को बनाए रखने के अपने प्रयास को साकार करने के लिए चीन का उपयोग एक बहाने के रूप में कर रहा है।

शीतयुद्ध काल के उत्पाद के रूप में नाटो अब यूरोप से दूर एशिया-प्रशांत क्षेत्र तक अपना विस्तार करने की कोशिश कर रहा है। इस कदम ने स्पष्ट रूप से इसके पीछे के अमेरिकी आधिपत्य को बनाए रखने के वास्तविक इरादे को उजागर कर दिया। हालांकि, यह रणनीति एशिया-प्रशांत क्षेत्र में काम करने की संभावना नहीं है। एशिया-प्रशांत देशों में विविध प्रणालियां और सभ्यताएं हैं। वे आम तौर पर आधिपत्य का विरोध करते हैं और सैन्य गठबंधन को स्वीकार नहीं करेंगे।

एशिया-प्रशांत में नाटो के विस्तार प्रयासों पर इसके आंतरिक सदस्य देशों द्वारा भी सवाल उठाए गए हैं और इसका विरोध किया गया है। कई यूरोपीय सदस्य देशों को उम्मीद है कि नाटो एशिया-प्रशांत मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए समुद्र पार यात्रा करने के बजाय यूरोप के अपने सुरक्षा मुद्दों पर ध्यान केंद्रित कर सकता है। साथ ही, नाटो द्वारा “चीनी खतरे” को लगातार बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने के बावजूद, अधिकांश सदस्य देश अभी भी चीन के साथ स्थिर संबंध बनाए हुए हैं, और क्षेत्रीय और यहां तक ​​कि वैश्विक स्थिरता और समृद्धि में चीन की महत्वपूर्ण भूमिका को पहचानते हैं।

नाटो की एशिया-प्रशांत रणनीति मूलतः विभाजन, संघर्ष और यहां तक कि युद्ध भड़काने की योजना है। इतिहास ने साबित कर दिया है कि शीत युद्ध के बाद नाटो के कई सैन्य हस्तक्षेप गंभीर आपदाएं लायी हैं। आज एशिया-प्रशांत देश स्वाभाविक रूप से इसके बारे में अत्यधिक सतर्क हैं।

अपनी एशिया-प्रशांत विस्तार महत्वाकांक्षाओं को साकार करने के लिए चीन को एक बहाने के रूप में इस्तेमाल करने की नाटो की कोशिश को एशिया-प्रशांत देशों और नाटो के आंतरिक सदस्यों के दोहरे प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है। इतिहास की प्रवृत्ति के विरुद्ध जाने की यह रणनीति अंततः विफलता में समाप्त होगी।

(साभार—चाइना मीडिया ग्रुप, पेइचिंग)

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