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प्रशांत देशों को जापान से परमाणु दूषित जल छोड़ने का मुआवजा मांगने का अधिकार!

 अप्रैल 2021 में जापान सरकार ने घोषणा की कि 2023 के वसंत से जापान सरकार समुद्र में फुकुशिमा दाइची परमाणु अपशिष्ट को समुद्र में फेंकना शुरू करेगी। इस तारीख के नजदीक आते ही अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में विरोध की आवाज़ गूंज रही है। प्रशांत क्षेत्रों में लोगों ने इसको लेकर जबरदस्त विरोध किया है। विश्लेषकों का मानना है कि यदि जापान योजनानुसार परमाणु अपशिष्ट जल को समुद्र में फेंकता है, तो प्रशांत देशों को जापान से मुआवजा मांगने का अधिकार है।

जापान की इस कार्रवाई से परमाणु प्रदूषण पूरी दुनिया में फैलेगा, जो बहुत गैर-जिम्मेदार हरकत है। खास तौर पर दक्षिण प्रशांत देशों को इस बारे में काफी अनुभव है। 1946 से 1958 तक अमेरिका ने मार्शल द्वीप समूह पर 67 बार न्यूक्लियर प्रशिक्षण किये। अभी तक स्थानीय लोगों को परमाणु विकिरण से नुकसान पहुंच रहा है।

जापान के फुकुशिमा दायची परमाणु संयंत्र में सर्वोच्च स्तरीय नाभिकीय दुर्घटना हुई थी, और बड़े पैमाने पर परमाणु अपशिष्ट जल निकला। अब वहां 13 लाख टन से ज्यादा परमाणु अपशिष्ट जल रखा गया है। हालांकि जापान के नेताओं ने कहा कि एएलपीएस सिस्टन का निपटारा करने के बाद परमाणु अपशिष्ट जल मानव जाति के पीने के लिए सुरक्षित है, फिर भी तथ्य ऐसा नहीं है।

अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण संरक्षण संस्था के संबंधित संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट से जाहिर है कि हाल में जापान की तकनीक परमाणु अपशिष्ट जल में कई रेडियोधर्मी तत्वों को खत्म करने में नाकाम रही है।

यदि 13 लाख टन परमाणु अपशिष्ट जल प्रशांत में डाला जाता है, तो प्रशांत देशों के लोगों की जीवन सुरक्षा के लिए बहुत बड़ा खतरा होगा। प्रशांत देशों के एक मशहूर पर्यावरण संरक्षण संगठन ने कहा, जापान की कार्रवाई गैरजिम्मेदार हरकत है, जो प्रशांत क्षेत्रों में परमाणु युद्ध छेड़ने के बराबर है।

जापान ने एक तरफातौर पर परमाणु अपशिष्ट जल को समुद्र में छोड़ने का निर्णय लिया और पूरी दुनिया के विपक्ष में खड़ा है। सभी देशों को कानूनी माध्यम से खुद के हितों की रक्षा करने का पूरा अधिकार है।

(साभार—चाइना मीडिया ग्रुप, पेइचिंग)

 

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