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योग के जरिए जुड़ रहे चीन और भारत के लोग

बीते 21 जून को दसवां विश्व योग दिवस बीत गया। इस मौके पर दुनियाभर में लोगों ने योग किया, उसके जरिए स्वास्थ्य और मानसिक लाभ उठाने की कोशिश की। विश्व योग दिवस मनाए जाने बाद दुनिया में योग के प्रति आकर्षण बढ़ा। उन्हीं दिनों चीन में भी योग का महत्व समझना शुरू हुआ। आज के अनुमान के मुताबिक, चीन में करीब एक करोड़ लोग नियमित रूप से अभ्यास करते हैं।

एक दशक से भी कम समय में, पूरे चीन में योग स्टूडियो खुल गए हैं। जो ज्यादातर शहरी सड़कों के किनारे हैं। योग की कक्षाओं की आज गिनती करना मुश्किल है। योग इंटरनेशनल के अनुमान के मुताबिक, अमेरिका में जहां एक करोड़ साठ लाख लोग योग करते हैं, वहीं चीन में यह संख्या एक करोड़ है। माना जा रहा है कि चीन में योग की लोकप्रियता ऐसे ही बढ़ती रही तो एक दिन वह योग की महाशक्ति बन जाएगा।

भारत के मशहूर योग शिक्षक बी.के.एस. अयंगर के प्रमुख शिष्यों में से एक, फैक बिरिया हैं। बिरिया 2008 से ही चीन में योग शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए आ रहे हैं। उनका दावा है कि चीन में “योग अमेरिका के रास्ते गया।” जानकार मानते हैं कि चीन हो या अमेरिका, योग उत्पाद और उद्योग के रूप में स्थापित हो रहा है। इसे योग के पारंपरिक जानकार गलत मानते हैं।

योग के बाजारीकरण से वे चिंतित भी हैं। चीन में भी उसका रूप बाजारीकरण के जरिए दिख रहा है। जानकारों के मुताबिक, चीन के ताओवादी ताई ची से लेकर पारंपरिक चीनी चिकित्सा तक, इनके बीच आपसी रिश्ता है। जब कोई चीनी योग सीखता है और उसका फायदा हासिल करने लगता है तो उसे पता चल जाता है कि उसकी अपनी चिकित्सा और जीवन पद्धति से भी वह जुड़ा है।

शास्त्रीय योग शिक्षण को बढ़ावा देने के लिए काम कर रहे चीनी पत्रकार चेन सी ने योग इंटरनेशनल से कहा है, “चीन में पारंपरिक चिकित्सा और अभ्यास व्यवस्था के साथ योग को जोड़ने की जरूरत है। उन्होंने इस गर्मी में एक सम्मेलन आयोजित किया जिसमें अयंगर और उनके दर्जनों शिष्यों को गुआंगज़ो में चीन के करीब 1,300 छात्रों से परिचय कराया गया। एक तरह से यह चीन-भारत योग शिखर सम्मेलन रहा, जिसे दोनों देशों का सरकारी समर्थन हासिल था।

दिलचस्पय यह है कि भारत के योग और संस्कृति की इस ताकत को चीन भी समझ रहा है। बहरहाल योग के जरिए भारत और चीन एक-दूसरे के नजदीक आ रहे हैं। योग भारतीय संस्कृति है, जिसने महात्मा बुद्ध के ध्यान को भी अपना लिया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि स्वास्थ्य के इस सांस्कृतिक उपादान को चीन में और लोकप्रियता मिलेगी।

(लेखक—उमेश चतुर्वेदी)

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