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सतत विकास को बढ़ाने के लिये पुरानी सभ्यताओं में से शक्ति खोजनी पड़ेगी

चीनी अध्ययन और इंडोलॉजी ऐसे विषय हैं जिन्हें दुनिया का शैक्षणिक समुदाय बहुत महत्व देता है। प्राचीन सभ्यताओं के प्रतिनिधि के रूप में, चीन और भारत ने प्राचीन काल में बेहद शानदार और गौरवशाली सभ्यताओं का निर्माण किया था। उनकी अर्थव्यवस्थाएं एक समय में दुनिया के क्रमशः एक तिहाई से एक-चौथाई तक रहती थीं। लेकिन आधुनिक समय में, वे सभी पश्चिमी उपनिवेशवादियों की आक्रामकता से उपनिवेश और अर्ध-उपनिवेश बन गए थे। हालाँकि हाल के वर्षों में, चीन और भारत ने आर्थिक सुधार के माध्यम से तेज़ विकास की राह में फिर से प्रवेश किया है। दोनों देश तकनीकी, आर्थिक और सामाजिक विकास में उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल कर रहे हैं, और वे एक बार फिर अपने महान उदय से पूरी दुनिया को चौंका देंगे।
जबकि चीन और भारत तेजी से बढ़ रहे हैं, बाकी दुनिया आर्थिक मंदी से ग्रस्त है।दुनिया एक संपूर्ण है, और प्रत्येक देश का उत्थान और पतन अन्य क्षेत्रों को प्रभावित करता है। इसलिए, विभिन्न सभ्यताओं के बीच आदान-प्रदान और आपसी सीख का बहुत महत्व है, क्योंकि इससे पूरी दुनिया के विकास और प्रगति को बढ़ावा मिल सकता है। प्राचीन काल में, सिल्क रोड पूर्व और पश्चिम को जोड़ता था। अनगिनत व्यापारिक यात्री इस प्राचीन सड़क पर चलते थे, और संस्कृति और प्रौद्योगिकी के खज़ानों को विभिन्न क्षेत्रों में स्थानांतरित करते थे। सिल्क रोड की भावना आज भी विभिन्न सभ्यताओं के बीच आदान-प्रदान और आपसी सीख को प्रेरित करती है। वर्तमान में, दुनिया भारी परिवर्तन के महान काल में गुजर रही है, जिसके तहत एकतरफावाद और संरक्षणवाद बढ़ रहा है, और क्षेत्रीय संघर्ष इधर उधर होते जा रहे हैं। इस संदर्भ में, सभ्यताओं के बीच आदान-प्रदान और आपसी सीखने का अधिक महत्व है। केवल जब विभिन्न सभ्यताएँ हाथ मिलाएँगी तभी हम मानव समाज के सामने आने वाली सभी चुनौतियों का सामना कर सकते हैं।
अतीत के अध्ययन में विभिन्न सभ्यताओं के आंतरिक कारकों की उपेक्षा की जाती थी। उदाहरण के लिए, कुछ विद्वानों का मानना ​​है कि आधुनिक समय में चीन और भारत का विकास और परिवर्तन मुख्य रूप से पश्चिमी उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद की आक्रामकता के कारण हुआ था। यह सही है कि पश्चिमी कारकों का प्रभाव निर्विवाद है। हालाँकि, उसी पश्चिमी उत्पीड़न के तहत, विभिन्न देशों ने पूरी तरह से अलग-अलग प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। इससे साबित होता है कि चीनी और भारतीय सभ्यताओं में पूरी तरह से अलग अंतर्निहित गुण हैं। इसे पहचानना इस सदी में चीन और भारत के विकास के लिए महत्वपूर्ण है। चीनी सभ्यता और भारतीय सभ्यता दोनों ही जन-केंद्रितता, आत्मनिर्भरता तथा मनुष्य और प्रकृति के सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व पर जोर देती हैं। जो पूर्वी सभ्यता की मुख्य विशेषता है। पिछली शताब्दी में, चीन और भारत ने क्रमशः स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद ही आधुनिकीकरण की ओर अपना अपना अभियान शुरू किया था। चीन ने यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका से आगे निकलने का नारा पेश किया, जबकि भारतीय प्रधान मंत्री नेहरू जी ने भी अपनी महान पुस्तक “द डिस्कवरी ऑफ इंडिया” में प्रस्ताव दिया था कि भारत को एक महान उपलब्धियों वाला देश बनना चाहिए।
कुछ पश्चिमी विद्वानों की राय में चीन, भारत, तुर्की, फारस और रूस समेत पूर्वी सभ्यताओं ने लंबे समय तक निरंकुश व्यवस्था कायम रखी, इसलिए वे हमेशा पिछड़ी रहीं। हालाँकि, तथ्यों ने साबित कर दिया है कि यूरोप की प्रगति तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था से नहीं हुई थी। विज्ञान और प्रौद्योगिकी की प्रगति का सामाजिक विकास पर निर्णायक प्रभाव पड़ता है। उन्नत विज्ञान और प्रौद्योगिकी के समर्थन के बिना, पश्चिमी सभ्यता तेजी से गिरावट आएगी। दरअसल, चाहे लोकतंत्र हो, स्वतंत्रता हो, निरंकुशता हो या अधिनायकवाद, ये चीजें सभ्यता का मूल नहीं हैं, ये सभ्यता की बाहरी अभिव्यक्ति मात्र हैं। पूर्वी सभ्यता में भी नवीनता, समानता और स्वतंत्रता की विशेषताएं हैं। भविष्य के विकास में निश्चित रूप से पूर्वी सभ्यता से आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होगी, क्योंकि पूर्वी सभ्यता में वसुधैव कुटुंबकम् की भावना मौजूद रहती है, जो मानव जाति की मुख्य चेतना बन जाएगी।
(साभार- चाइना मीडिया ग्रुप, पेइचिंग)

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