भारत में फ्रैडरिक अटैक्सिया की दवा उपलब्ध कराने की दिशा में काम कर रहा है एम्स

दिल्ली के एम्स अस्पताल में मंगलवार को फ्रैडरिक अटैक्सिया नामक बीमारी से पीड़ित मरीजों के लिए जागरूकता अभियान चलाया गया।

नई दिल्ली: दिल्ली के एम्स अस्पताल में मंगलवार को फ्रैडरिक अटैक्सिया नामक बीमारी से पीड़ित मरीजों के लिए जागरूकता अभियान चलाया गया। अस्पताल में बड़ी संख्या में मरीजों को डॉक्टरों से सलाह लेते हुए देखा गया। यह एक दुर्लभ और गंभीर बीमारी है, जो जैनेटिक होती है। यह मरीज की रीढ़ की हड्डी, परिधीय तंत्रिकाओं के साथ मस्तिष्क को भी प्रभावित करती है। यह ज्यादातर बच्चों और किशोरावस्था में देखने को मिलती है। इस बीमारी को समझने के लिए एम्स दिल्ली के न्यूरोलॉजी विभाग के प्रोफैसर डॉ. अचल कुमार श्रीवास्तव से बात की।

इस गंभीर बीमारी के बारे में बात करते हुए डॉक्टर अचल ने बताया, ‘फ्रैडरिक अटैक्सिया एक जेनेटिक बीमारी है। यह 25 वर्ष से कम उम्र के लोगों को अपना शिकार बनाती है। इसमें व्यक्ति के तंत्रिका तंत्र में परेशानी आती है। इसके बाद मरीजों को चलने में परेशानी जैसी समस्या का सामना करना पड़ता है। हालात खराब होने पर यह मरीजों को व्हीलचेयर पर ले आती है।’ उन्होंने बताया कि ऐसे में मरीजों को शुगर और हार्ट संबंधी समस्याएं भी आ सकती हैं। यह बीमारी तेजी से बढ़ रही है। यह कोई नई बीमारी नहीं है, इसका पता 1863 के आसपास लगा लिया गया था।

मरीज को लगभग 20 साल के बाद इसका पता चलता है। उन्होंने आगे कहा, इस बीमारी में मांसपेशियों में कमजोरी जैसे लक्षण दिखाई देते हैं। यह बीमारी समय के साथ बढ़ती चली जाती है। मरीज बिना सहारे के चल नहीं पाता, उसे व्हीलचेयर का सहारा लेना पड़ता है। स्थिति खराब होने पर वह पूरी तरह से बिस्तर पर भी आ जाता है।’ प्रोफैसर ने बताया कि यह बीमारी जीन में म्यूटेशन के कारण होती है, जो प्रोटीन फ्रैटेक्सिन के स्तर को कम करता है। इस प्रोटीन की कमी से तंत्रिका और मांसपेशियों की कोशिकाएं खराब हो जाती हैं जिसके चलते मरीज को आमतौर पर चलने में कठिनाई होती है।

साथ ही मांसपेशियों में कमजोरी, बातचीत करने में दिक्कत और हृदय रोग जैसे लक्षण भी पाए जाते हैं। यह बीमारी बहुत ही धीरे-धीरे बढ़ती है लेकिन कम नहीं होती, साथ ही इसे रोका भी नहीं जा सकता। इसके लक्षण आमतौर पर बचपन (5 वर्ष) या किशोरावस्था (15 वर्ष) में शुरू होते हैं और समय के साथ बिगड़ते चले जाते हैं। यानी करीब 15 साल बाद अधिकांश मरीज गंभीर विकलांगता के शिकार हो जाते हैं। उन्होंने तहा कि इस बीमारी का हमारे पास कोई डाटा तो नहीं है, लेकिन 50 हजार में से एक मरीज को यह बीमारी होती है। मैंने 22 सालों में इसके लगभग 150 मरीज देखे हैं।

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