Akshara Devi Dham Peeth : उत्तर प्रदेश के जालौन जिले में कई ऐतिहासिक और धार्मिक धरोहरें मौजूद हैं। इन्हीं में से एक महत्वपूर्ण स्थान है “अक्षरा देवी धाम पीठ”। यह धाम न केवल आध्यात्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसकी पौराणिक और ऐतिहासिक मान्यताएं भी इसे खास बनाती हैं। आइये जानते हैं इसे विस्तार से…
अक्षरा देवी धाम जालौन जिले के उरई मुख्यालय से लगभग 40 किलोमीटर दूर स्थित है। यह बेतवा नदी के किनारे सैदनगर गांव में स्थित है। यहां तक पहुंचने के लिए पक्की सड़क उपलब्ध है, जिससे श्रद्धालु किसी भी वाहन द्वारा आसानी से पहुंच सकते हैं। यह मंदिर कानपुर-झांसी रेलमार्ग पर एट जंक्शन से 12 किलोमीटर पूर्व की ओर कोटरा रोड के पास स्थित है।
अक्षरा देवी धाम को वैदिक और तांत्रिक काल में भी विशेष महत्व प्राप्त था। इसे जगदंबा उपासना की सिद्धि पीठ माना जाता है। इस क्षेत्र की प्राचीन काल में त्रिकोणीय स्थिति थी, जो कालांतर में बेतवा नदी के प्रवाह बदलने के कारण बदल गई। इसे गायत्री पीठ, त्रिपुर सुंदरी पीठ और महालक्ष्मी पीठ के रूप में भी जाना जाता है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, अक्षरा शब्द का अर्थ होता है – जो कभी नष्ट न हो। यह स्थान सृजन, ऊर्जा और दिव्य चेतना का केंद्र माना जाता है। कहा जाता है कि ब्रह्मांड में सबसे पहले लिपि का जन्म इसी स्थान पर हुआ था। मंदिर में पूजन और अनुष्ठान की विशेष परंपराएँ इस मंदिर में कुछ विशेष परंपराएँ निभाई जाती हैं। बलि प्रथा नहीं है – यहां माता को बलि नहीं दी जाती। नारियल मंदिर के भीतर नहीं तोड़ा जाता – यदि कोई श्रद्धालु नारियल तोड़ना चाहता है, तो उसे मंदिर के पीछे स्थित पहाड़ पर तोड़ना होता है। दीपक जलाने की परंपरा अलग है – मंदिर के गर्भगृह में तेल का दीपक नहीं जलाया जाता।
तिल और जवा का हवन मंदिर परिसर के पीछे की वेदी पर किया जाता है। मंदिर में हवन केवल चंदन, धूप, औषधीय लकड़ियों, घी और शक्कर के साथ किया जाता है। शुद्ध साधना का महत्व – यहां तामसी और राजसी पदार्थों से दूर रहकर साधना की जाती है। इससे साधकों की भावनाएँ शुद्ध होती हैं।
मां अक्षरा देवी धाम पवित्र वेत्रवती नदी (बेतवा नदी) के किनारे स्थित है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, यह नदी भगवान शिव के अश्रुपात से बनी थी। जब देवी सती ने दक्ष प्रजापति के यज्ञ में आत्मदाह किया, तब भगवान शिव की आंखों से आंसू बहे और वेत्रवती नदी का जन्म हुआ। यह नदी गंगा के समान पवित्र मानी जाती है और इसे “कलियुग की गंगा” भी कहा जाता है। पहले हर वर्ष बारिश में इस नदी का जल मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश कर मां के चरण पखारता था। हालांकि, मौसम परिवर्तन के कारण अब यह परंपरा बाधित हो गई है।
मंदिर के सामने एक प्राकृतिक कुंड स्थित है, जिसे सैदोलक जल कुंड कहा जाता है। इस जल को बहुत पवित्र माना जाता है और इसे प्राप्त करने के लिए विशेष मुहूर्त में प्रयास किए जाते हैं।
आयुर्वेदिक मान्यता के अनुसार, इस जल में धातुओं को बदलने की शक्ति होती है। ऐसा कहा जाता है कि इस जल से लकड़ी पत्थर में बदल सकती है। पत्थर मणि में परिवर्तित हो सकता है। धातु स्वर्ण में बदल सकती है।
नवरात्रि के दौरान मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। भक्त नौ दिनों तक मंदिर में प्रवास कर मां की आराधना में लीन रहते हैं। चैत्र नवरात्र के बाद एकादशी को विशेष मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमें दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं।
अधिकतर देवी मंदिरों में मां की प्रतिमा या श्रीविग्रह स्थापित होते हैं, लेकिन अक्षरा देवी मंदिर में देवी यंत्र रूप में विराजमान हैं। यहां गर्भगृह में साढ़े तीन मात्राओं के एक विशेष यंत्र की पूजा की जाती है। यह अपने आप में एक अनूठी परंपरा है। ऐसा माना जाता है कि इस धाम में केवल बौद्धिक साधना को ही मान्यता प्राप्त है और यह स्थान पहले से ही सिद्ध है।
“श्री दुर्गा सप्तशती” के तंत्रोक्त रात्रिसूक्तम् में स्वयं ब्रह्माजी ने अक्षरा देवी की स्तुति की है। यहां किसी प्रकार की सिद्धि करने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि यह स्थान पहले से ही सिद्ध शक्तिपीठ माना जाता है। भक्तों का विश्वास है कि इस मंदिर में मां की साधना करने से विद्या, बुद्धि और आध्यात्मिक ऊर्जा की प्राप्ति होती है। यही कारण है कि यह स्थान विद्वानों और साधकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है।