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इंसानियत में ही स्वर्ग हैं

एक दार्शनिक गांव के एक किनारे छोटी-सी कुटिया में रहते हुए अहर्निश आत्मानुभव में लीन रहा करता था। कभी-कभी जब लोग उसके दर्शनों के लिए आते तो अपने अमृतमय शब्दों में उन्हें वह आनन्दित कर देता। उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई और लोगों में वह सम्माननीय साधु के रूप में स्थापित हो चुका था।

एक दिन भरी दोपहरी में वह हाथ में जलती हुई लालटेन लेकर किसी चीज की खोज में निकल पड़ा। लोगों ने देखा तो आश्चर्य हुआ कि यह इतना विद्वान, आत्मानुभवी साधु सूरज के उजाले में जलती हुई लालटेन लेकर भला क्या खोज रहा है?

‘बाबा, आप क्या ढूंढ रहे हो?’ लोगों ने उस दार्शनिक से पूछा! ‘इंसान!’ उत्तर में उसने कहा! ‘क्या? आप इंसान खोज रहे हैं! पूछने वालों को आश्चर्य हुआ! ‘हां, मैं इंसान खोज रहा हूं, क्योंकि इंसान खो गया है!’ ‘क्या हम सभी इंसान नहीं हैं?’ पुन: लोगों ने पूछा! ‘न!’ तुम सभी में कोई वकील है, डाक्टर है, इंजीनियर है, अमीर है, गरीब है तो कोई किसान है परंतु इंसान नहीं है।

इंसान खो गया है और इस प्रकार के लेबल सभी ने अपने ऊपर लगा रखे हैं। उस दार्शनिक की कितनी गहरी व मर्मस्पर्शी बात है जो आज भी तरोताजा है कि सचमुच में आज इंसान खो गया है। वह पूर्णरूपेण यह भूल गया है कि पहले वह इंसान है उसके बाद वह कुछ और है। इसका नतीजा क्या हुआ?

भेदभाव की दीवारें खड़ी कर दी गई, ईर्ष्या-द्वेष, वैमनस्य पनपने लगा और जीवन का सारा चैन छिन गया। हम सभी एक ही पिता की संतान होने के नाते एक ही देश के रहने वाले, इस पृथ्वी रूपी घाट पर कुछ समय के लिए आए हैं लेकिन विचारों, धारणाओं की ऐसी संक्रामक बीमारी लगी कि एक ही पिता की संतान होते हुए अपने आपको अलग-अलग समझने लगे।

अपनी खुद की ही पहचान को भूल गए। हम जातिभेद, वर्णभेद के ऐसे दल-दल में फंस चुके हैं कि निकल पाना मुश्किल हो रहा है। हर क्षेत्र में कद बड़ा है, काबिलियत बड़ी है लेकिन इंसानियत नहीं है, तो क्या मायने कद और काबिलियत के। लोग स्वर्ग व नरक की बातें किया करते हैं लेकिन सचमुच में स्वर्ग-नरक इसी जमीं पर हैं। यदि हमने ‘इंसानियत’ को सीख लिया तो स्वर्ग और इंसानियत को खो दिया तो नरक है।

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