सिखों के पवित्र धर्मस्थान श्री आनंदपुर साहिब में होली के अगले दिन से लगने वाले मेले को होला-मोहल्ला कहते हैं। सिखों के लिए यह धर्मस्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है। दशम गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने होली के लिए पुलिंग शब्द होला-मोहल्ला का प्रयोग किया। गुरु जी इसके माध्यम से समाज के दुर्बल और शोषित वर्ग की प्रगति चाहते थे। होला-मोहल्ला का उत्सव आनंदपुर साहिब में छ: दिन तक चलता है।
इस अवसर पर घोड़ों पर सवार निहंग, हाथ में निशान साहिब उठाए तलवारों के करतब दिखा कर साहस और उल्लास का प्रदर्शन करते हैं। पंज प्यारे शोभायात्रा का नेतृत्व करते हुए रंगों की बरसात करते हैं और नगर कीर्तन में निहंगों के दल तलवारों के करतब दिखाते हुए ‘बोले सो निहाल’ के नारे बुलंद करते हैं। आनंदपुर साहिब की सजावट की जाती है और विशाल लंगर का आयोजन किया जाता है। कहते हैं गुरु गोबिंद सिंह जी (सिखों के दसवें गुरु) ने स्वयं इस मेले की शुरुआत की थी।
शौर्य गाथा का प्रतीक श्री आनंदपुर साहिब
आनंदपुर साहिब की चर्चा करने से पूर्व यह कहना उचित रहेगा कि गुरु गोबिंद सिंह जी ने वीरता का संचार करने के लिए आनंदपुर साहिब को ही क्यों चुना? आनंदपुर साहिब शिवालिक की पहाड़ियों में रोपड़ जिले के नंगल से 29 किलोमीटर तथा रोपड़ से 31 किलोमीटर है।
ऐतिहासिक महत्व के लिए जाने जाते इस शहर में 1699 बैसाखी के उत्सव पर श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा तथा पंज प्यारे साजे थे। इस तरह उन्होंने उस समय के योद्धाओं को वीर रस में ओत-प्रोत कर सदा के लिए योद्धाओं का रूप देने हेतु यहां होला-मोहल्ला पर सैनिक अभ्यास कर उनमें वीरता एवं उत्साह भरने का कार्य शुरू किया।
कैसे शुरुआत हुई होला-मोहल्ला की
श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने होला-मोहल्ला मनाने का फैसला किया। होली से दूसरे दिन श्री आनंदपुर साहिब में होला-मोहल्ला मनाने की शुरुआत हुई। कथा-कीर्तन द्वारा प्रभु भक्ति का संदेश संगत को दिया गया। होलगढ़ की स्थापना की गई।
क्या था उद्देश्य
इस त्यौहार को शुरू करने का तथा मनाने का उद्देश्य लोगों को कच्चे रंगों से बचा कर पक्के रंगों भाव वीरता, दृढ़ता, अटूट विश्वास जैसे गुणों से ओत-प्रोत करना था। तैराकी, घुड़सवारी, कुश्तियों तथा कसरत के अन्य ढंग प्रयोग करने शुरू कर दिए। उस समय के प्रचलित शस्त्रों की सिखलाई गुरु सिंहों के लिए जरूरी कर दी।
होला-मोहल्ला पर 15 दिन आनंदपुर साहिब में वीर रस की वारों तथा शस्त्र विद्या के अभ्यास करवाए जाते हैं। होले के समय ये सभी करतब पूरे हो जाते हैं। इस तरह श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने नया स्थान होलगढ़ रच कर होला-मोहल्ला खेलने की नई रीत चलाई।
आज भी होला-मोहल्ला की प्रथा सिंहों में उसी प्रकार चलती आ रही है। आनंदपुर साहिब के अतिरिक्त अमृतसर में भी निशान साहिब के अधीन अकाल तख्त साहिब से मोहल्ला चढ़ता है जो शहर की परिक्रमा करता हुआ बुर्ज बाबा फूला सिंह पर समाप्त होता है।
इस प्रकार इस मोहल्ले में कई प्रकार के शारीरिक करतब दिखाने वाले जैसे घुड़सवार निहंग, गतका पार्टी, मोटरसाइकिल, स्कूटर सवार नौजवान, बैंड पार्टियां, स्त्री जत्थे, सिंह सभाएं तथा अन्य सभासोसायटियां सम्मिलित होती हैं। इसके अतिरिक्त स्थानीय तौर पर कई शहरों, नगरों तथा गांवों में भी होला-मोहल्ला मनाया जाता है।