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जानिए क्यों हुआ महाभारत का युद्ध और कितने दिन चला था यह युद्ध

महाभारत का युद्ध, युधिष्ठिर को अपनी मृत्यु का रहस्य बताने के बाद देवव्रत भीष्म समझ गए कि कल का दिन उनकी पराजय का दिन है। जीवन भर बिना किसी लोभ के अपने राष्ट्र् और कुल की रक्षा के लिए समर्पित रहे उस महायोद्धा के प्रयाण का समय आ गया था। मृत्यु जीवन की पूर्णता है जो सदैव उदासी के साथ ही आती है। देवव्रत उदास थे और उदास व्यक्ति सदैव ममता का द्वार खटखटाना चाहता है। रात्रि के नीरव अंधकार में भीष्म अनायास ही टहलतेटहलते मां गंगा के तट पर पहुंच गए। दूर तक फैली अथाह जल राशि और तट पर बैठा उस युग का सर्वश्रेष्ठ योद्धा। जल में थोड़ी हलचल हुई और मां साक्षात समक्ष खड़ी हो गईं। कहा, ‘आ गए पुत्र?‘ भीष्म ने एक उदास मुस्कुराहट के साथ कहा, ‘आ ही गया मां! इस उदास जीवन के अंत का समय आ गया।

जाने कबसे अपने कर्मों का दण्ड भोगते देवव्रत की मुक्ति का समय आ गया। विडम्बना देखो, जीवन में कभी पराजित नहीं होने वाले भीष्म ने आज स्वयं अपने प्रिय युधिष्ठिर को बताया कि वे मुझे कैसे मार सकते हैं। अच्छा ही है, स्वयं ही अपने वध का कारण बन कर अर्जुन को अपने पितामह की हत्या के अपराधबोध से थोड़ा मुक्त कर जाऊंगा।’ ‘फिर उदास क्यों हो पुत्र?‘ माता ने उनके माथे को सहलाते हुए पूछा। ‘कल तक जब नियति अपनी उंगलियों पर नचा रही थी तो सोचने का समय ही नहीं मिला पर अब सोच रहा हूं कि कैसा बीता यह शापित जीवन।

अपनी प्रतिज्ञा के बंधन में बंध कर क्या-क्या न किया मां। आज जब अपनी निष्ठा को नैतिकता के तराजू पर तौलता हूं तो लगता है जैसे पराजित हो गया हूं।’ ‘इतना क्यों सोचते हो? तुम वैरागी नहीं गृहस्थ थे पुत्र। तुम इस हस्तिनापुर के निष्ठावान सैनिक थे। तुम्हारी निष्ठा अपने राष्ट्र के प्रति थी और तुमने जीवन के हर क्षण को बिना कुछ सोचे विचारे अपने राष्ट्र के नाम समर्पित कर दिया। फिर अच्छे-बुरे की चिन्ता क्यों करनी? राष्ट्र के हित में किये गए कार्यों को व्यक्तिगत नैतिकता की तराजू से मुक्त रखना चाहिए पुत्र!’ माता अपने वृद्ध पुत्र को नन्हे बालक की तरह समझा रही थी।

माता के लिए बच्चे कभी बड़े नहीं होते। भीष्म ने गम्भीरता के साथ ही कहा, ’बात केवल इतनी ही भर नहीं है माता। जीवन में जाने कितनी बार अपने ही हाथों अपनी आत्मा को चोट पहुंचाई, जाने कितनी बार स्वयं का वध किया। यहां तक कि जीवन के अंतिम युद्ध में भी अपने प्रिय अर्जुन के विरुद्ध शस्त्र उठाना पड़ा। क्या पाया मैंने…।‘‘निष्ठा धर्म के प्रति हो या राष्ट्र के प्रति, वह मनुष्य से पल पल बलिदान मांगती है पुत्र! मनुष्य को हर क्षण अपने मोह, अपने प्रेम का त्याग करना पड़ता है। जो ऐसा कर पाते हैं वे ही अपने युग की प्रतिष्ठा होते हैं।

इस युग में दो ही तो लोग हैं जो इतना कर सके हैं। एक कृष्ण और दूसरे तुम… तुम इस युग की प्रतिष्ठा हो पुत्र, तुम इस युग की प्रतिष्ठा हो… सभ्यताओं का इतिहास क्या होगा, यह तुम जैसे स्वयंसेवकों की पीड़ा तय करती है।‘ भीष्म विभोर हो रहे थे। मां ने फिर कहा, ‘दुखी मत होवो पुत्र! दुर्योधन जैसी मानसिकता भीष्म जैसे चरित्रों का आदर कभी नहीं करती, पर हर युग का युधिष्ठिर तुम्हारे सामने श्रद्धा से शीश झुकायेगा। यही तुम्हारी कुल उपलब्धि है।‘भीष्म ने सिर झुका कर माता को प्रणाम किया और शिविर की ओर लौट चले। गंगा तट से लौटता वृद्ध वस्तुत: माता से मृत्यु की ओर बढ़ रहा था। यही यात्र जीवन कहलाती है शायद…।

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