एक बार जगत की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा जी अपनी सभा में बैठे हुए थे। अचानक ही उनके नेत्रों से आंसू छलक पड़े। उन्हीं आंसुओं से एक वानर की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा जी ने उस वानर का नाम ऋक्षराज रखा और उसे किष्किंधापुरी भेज दिया। वहां उसे वानर राज्य के सिंहासन पर बैठाया गया। ऋक्षराज के स्वर्गवासी हो जाने के बाद उनका बड़ा पुत्र बाली वानर राज्य के सिंहासन पर विराजमान हुआ। छोटा भाई सुग्रीव उसकी सेवा में रहकर राज्य के कार्यों में सहयोग देने लगा। एक दिन मयकुमार मायावी नाम के राक्षस ने अचानक आधी रात के समय किष्किंधापुरी के राजद्वार पर आकर बाली को युद्ध के लिए ललकारा। बलशाली बाली शत्रु की ललकार को सहन नहीं कर सका और उसी समय युद्ध करने के लिए शस्त्र लेकर अकेले ही उसे मारने के लिए निकल पड़ा।
ज्येष्ठ भ्राता के स्नेहवश और कर्त्तव्यपालन के लिए सुग्रीव भी उसके पीछे हो लिया। कुछ दूर जाकर वह राक्षस एक गुफा में घुस गया। बाली ने छोटे भाई सुग्रीव को आदेश दिया-‘‘तुम पंद्रह दिनों तक गुफा के बाहर रहकर मेरी प्रतीक्षा करना। मैं गुफा में जाकर राक्षस को खोजता हूं।’’ कहकर बाली राक्षस का पीछा करने के लिए अंधेरी गुफा में प्रवेश कर गया। सुग्रीव भाई की आज्ञा के अनुसार गुफा के बाहर उसकी प्रतीक्षा करता रहा। प्रतीक्षा करते-करते एक माह बीत गया, सुग्रीव को भाई के लौटने पर संदेह होने लगा। एक दिन अचानक ही गुफा से रक्त धारा निकली। सुग्रीव भयभीत होकर सोचने लगा कि शायद उस राक्षस ने भाई को मार डाला है और अब वह बाहर मुझे भी मार डालेगा। इसलिए वह गुफा के द्वार पर एक बहुत बड़ी शिला रखकर किष्किंधापुरी वापस लौट आया। मंत्रियों ने सिंहासन को खाली देखकर राजा के पद पर सुग्रीव का राजतिलक कर दिया। कुछ दिनों के पश्चात बाली राक्षस का वध करके सकुशल राजधानी लौट आया।
वहां अपने स्थान पर उसने सुग्रीव को आसीन देखा तो क्रोधित हो उठा और उसके मन में छोटे भाई के प्रति दुर्भावना पैदा हो गई। उसने सुग्रीव का धन और उसकी स्त्री, सभी कुछ उससे छीन लिया और उसे राज्य से निकाल दिया। सुग्रीव बाली के भय से अपने चार मंत्रियों सहित भागकर ऋष्यमूक पर्वत पर रहने लगा। वहां वह सुरक्षित और निर्भय था क्योंकि वहां मतंग-ऋषि के शाप के कारण बाली के वहां आने की संभावना नहीं थी। उसी समय श्रीराम, लक्ष्मण के साथ सीता की खोज में भटक रहे थे। वे शबरी के कहने के अनुसार पम्पा सरोवर की ओर बढ़ रहे थे। संयोगवश सुग्रीव की दृष्टि उन दोनों पर पड़ी। उनके मन में शंकाएं घर करने लगीं। उन्होंने हनुमान जी को बुलाया और कहा‘मंत्रिवर, तुम तुरंत जाकर पता लगाओ कि ये दो वीर पुरुष कौन हैं। इधर आने का इनका उद्देश्य क्या है। कहीं इन्हें बाली ने मुझे मारने के लिए तो नहीं भेजा है?’ हनुमान जी श्रीराम के पास पहुंचे। वार्तालाप के पश्चात् आपस में परिचय हुआ। संतुष्ट हो जाने पर हनुमान जी दोनों भाइयों को अपने कंधों पर बैठाकर सुग्रीव के पास ले आए।
अग्नि के साक्ष्य में श्रीराम और सुग्रीव की मित्रता का गठबंधन हुआ। दोनों ने एक-दूसरे के दुख में काम आने की प्रतिज्ञा ली। सुग्रीव ने अपनी दुख-भरी कहानी श्रीराम को सुनाई। श्रीराम ने सुग्रीव को विश्वास दिलाया कि वे बाली का वध करके उसे आतंक से मुक्ति दिलाएंगे। श्रीराम के कथन पर सुग्रीव को विश्वास नहीं हो रहा था, इसलिए उसने परीक्षा के लिए उन्हें दुंदुभि राक्षस का विशाल अस्थि समूह दिखाया। श्रीराम ने उसे पैर के अंगूठे से गिरा दिया। फिर सात ताड़ के वृक्षों को एक ही बाण से बींधकर धराशायी कर लिया। सुग्रीव को विश्वास हो गया कि श्रीराम कोई साधारण प्राणी नहीं हैं। वह अवश्य ही बाली का वध करेंगे।
श्रीराम सुग्रीव को साथ लेकर किष्किंधापुरी में आए और उसे बाली के साथ युद्ध करने को प्रेरित किया। सुग्रीव ने बाली को युद्ध के लिए ललकारा। बाली क्रुद्ध हो गया। दोनों भाइयों में मल्ल युद्ध आरंभ हो गया लेकिन सुग्रीव भाई के सम्मुख अधिक देर टिक नहीं पाया और भाग खड़ा हुआ। श्रीराम ने सुग्रीव को पुन: युद्ध के लिए भेजा। दोनों भाइयों में भेद करने के लिए सुग्रीव के गले में फूलों की माला डाल दी गई। सुग्रीव बाली के सम्मुख फिर शिथिल पड़ने लगा। तभी मौका देखकर श्रीराम ने बाली की छाती को लक्ष्य करके बाण छोड़ दिया। बाण लगते ही बाली तड़प कर पृथ्वी पर गिर पड़ा और उसके प्राण पखेरू उड़ गए। बाली की अंत्येष्टि के बाद श्रीराम ने सुग्रीव को राज्य और बाली पुत्र अंगद को युवराज पद दिया।