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महान पिता के महान सपूत भगवान श्री चंद्र जी

विश्व-कल्याण के लिए अवतरित हुई आध्यात्मिक विभूतियों ने अपने-अपने समय में जनमानस में धार्मिक एवं सामाजिक चेतना लाने के लिए जो एक मार्ग चुना वह था धार्मिक यात्राऐं। गुरु नानक देव जी के संदर्भ में उनकी धार्मिक यात्राओं का नाम दिया गया ‘‘उदासियां’’ उनकी चार उदासियां प्रसिद्ध हैं। महान पिता के महान सुपुत्र उदासीनाचार्य भगवान् श्रीचन्द्र जी ने अपने जीवन में धर्म यात्राओं के मार्ग को ही अपनाया। भगवान् श्रीचन्द्र जी ने अपनी यात्राओं के दौरान उस समय के क्रूर शासकों को अपने चमत्कार से प्रभावित कर अपने उपदेशों के माध्यम से शासक-धर्म क्या होता है, उसके विषय में बतलाया।

यात्राओं के इस क्रम में भगवान् काबुल,कंधार,अफगानिस्तान, भूटान इत्यादि स्थानों पर गए। काबुल में एक भक्त था वजीर खां। वह श्रीराम और श्री कृष्ण के भक्ति गीत गाते हुए काबुल की गलियों में घूमता रहता था। कट्टर मौलवी इसे कैसे सह सकते थे? वे उससे घृणा करने लगे। एक दिन उन्होंने वजीर खां को मार डालने का निश्चय कर लिया, किन्तु उस समय वह एक छप्परी (झोंपड़ी) में खड़ा श्रीराम-राम, श्री कृष्ण-कृष्ण कर रहा था। बाबा श्री चन्द्र जी के पद-रज से पवित्र हुई वह झोंपड़ी चमत्कारी थी। इसलिए आक्रमणकारियों के बार-बार प्रयत्न करने पर भी उनके हाथ वज़ीर खां तक नहीं पहुंच पाये।

फिर भी उन्हें इस चमत्कार का रहस्य समझ में नहीं आया। फिर तो विशेष चमत्कार आवश्यक था। उनके पांव वहीं जकड़ गये। उनके नेत्रों की ज्योति चली गई। फिर भीड़ में से कुछ समझदार लोगों को आभास हुआ कि यह चमत्कार बाबा श्रीचन्द्र जी का था। सभी ने मिल कर बाबा जी से क्षमा-याचना की। कृपालु उदासीनाचार्य ने उन्हें समझाया- ‘इसका एक ही उपाय है, वज़ीर खां के चरणों में गिर कर माफी मांगो। आप सब उसी के अपराधी हो। इसलिए वही क्षमा करेगा। भीड़ ने ऐसा ही किया। वज़ीर खां को प्रसन्न करने के लिए वे भी श्री राम तथा श्री कृष्ण का कीर्तन करने लगे।

उनके पांव खुल गए तथा नेत्रों में ज्योति आ गई। इस प्रकार भगवान् अपने भक्तों को मान देते हैं तथा भक्तों से द्वेष करने वालों को दण्ड दे कर उन्हें सच्ची राह दिखाते हैं। आज भी काबुल में लोगों को विश्वास है कि उस छप्परी (झोंपड़ी) में शरण लेने वाला सुरक्षित हो जाता है। श्रद्धालुओं ने उस छप्परी को पक्की करके उसे प्रसिद्ध शरणस्थली बना दिया है। कंधार के शासक कामरान को भगवान् श्री चन्द्र जी ने प्रजा से निष्पक्ष तथा न्यायपूर्ण व्यवहार करने की शिक्षा दी। उसने ऐसा करने की प्रतिज्ञा भी की, किन्तु वह अब भी निर्दोष पशुओं का शिकार करता रहा।

एक दिन उसने धूना के पवित्र वातावरण को दूषित करने का अपराध किया। उसी परिसर में एक भोले भाले मृग को मार गिराया। इतना ही नहीं, उसने उस मरे मृग की आंखें भी निकाल लीं। यह घटना संवत् 1597 वि. के आरभ की है। भगवान् श्रीचन्द्र की करुणा जागी। उन्हें इस क्रूर शासक पर बड़ा क्रोध आया। उनके मुख से सहज भाव से निकल गया- जिस निर्दयी ने इस मृग की आंखें निकाली हैं, उसे अपनी आंखें दे कर इसका मूल्य चुकाना होगा। यह सुनते ही कामरान कांपने लगा। शरण में आने पर भगवान् ने समझाया- ‘कामरान, यह सारी प्रकृति परमेश्वर की बनाई हुई है। प्रकृति के किसी भी जीव की हिंसा परम पिता परमेश्वर का अपमान है। इस लिए क्रूर कर्म का फल तो तुम्हें भुगतना ही होगा।’

कामरान को अपने अत्याचार का एहसास हुआ। घबराकर उसने अत्यन्त दैन्य तथा प्रायश्चित के भाव से भगवान् से क्षमा-याचना की तथा भविष्य में फिर कभी जीव हत्या का पाप न करने का वचन दिया। भगवान् ने कामरान को क्षमा करते हुए मुस्कुरा कर मृग की ओर देखा। मृग जीवित होकर चौकड़ी भरता हुआ दूर निकल गया। अन्य दर्शकों के साथ कामरान भी आश्चर्यचकित था। उसने बाबा जी के इस चमत्कार के प्रति नतमस्तक हो कर अपना शेष जीवन मानवता के कल्याण के लिए समर्पित किया। संवत् 1597 वि. के अन्त में भगवान् श्रीचन्द्र जी बारठ पधारे।

वहां उनका सामना योगी चरपटनाथ से हुआ। योगी ने प्रसाद के रूप में बाबा जी के पास आम का एक फल भेजा। बाबा जी के पास उस समय दो व्यक्ति और भी थे। उनके मुख से सहज ही निकल पड़ा, ‘यदि तीन आम होते तो एक-एक हममें से प्रत्येक को मिल जाता।’ सेवक ने जाकर योगी को वैसे ही सुना दिया। यह सुन कर गर्वित चरपटनाथ ने संदेश भेजा- ‘यदि ज्यादा आम चाहिए तो अपना बगीचा लगा लें।’ बाबा जी ने योगी की चुनौती स्वीकार की। उन्होंने आम के फल का रस निचोड़ा और उसे पास की खाली धरती पर छिड़क दिया। बाबा जी की दिव्य शक्ति से वहां रात भर में ही सरस तथा मीठे फलों से लदे आम के पेड़ उग आये। चरपटनाथ को अत्यंत आश्चर्य हुआ।

उसका गर्व चूर-चूर हो चुका था। चुपचाप उस क्षेत्र को छोड़कर चला गया। बारठ ग्राम गुरुनानक देव जी महाराज का ननिहाल था। उनकी अनुपस्थिति में जब अपनी माता और बुआ आपको इस स्थान पर लायी तो एक बार गुरू नानक देव जी के मामा कृष्णा ने घर से बाहर जाकर एक निर्जन स्थान पर आपको समाधि लगाए बैठे देखा और वह आश्चर्यचकित हुआ। बचपन में इस स्थान पर तपस्या करने के कारण आपका लगाव इस ग्राम के साथ हो गया और जब कभी अपनी किसी यात्रा से आप वापिस लौटते तो आप यहीं निवास करते। इतिहासकारों के मतानुसार जीवन के लगभग 36 वर्ष आप इस ग्राम में अलग-अलग समय पर रहे। भगवान् का यह तप:स्थान आज भी विद्यमान है। शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी के अधीन है।

हर अमावस्या पर भारी मेला लगता है। श्रीचन्द्र नवमी का पर्व मनाया जाता है। एतिहासिक मान्यता के अनुसार तीसरे, चौथे, पांचवे और छठे गुरू इसी स्थान पर भगवान् से मिलने के लिए आए थे। बारठ में बारेखां नाम का एक पठान रहता था। वह बाबा के पास आता जाता था। एक दिन उसके पुत्र ने पेड़ पर बैठे पक्षियों को बंदूक से मार डाला। अपनी आंखों के सामने घटी घटना से बाबा जी को आघात पहुंचा। उनकी मर्मपीड़ा इन शब्दों में फूट पड़ी- ‘इन बेजुबान पक्षियों की पीड़ा तुम तभी जान सकोगे, जब खुद इसी प्रकार तड़प कर मरोगे’। सिद्ध का वचन मिथ्या कैसे होता? बारेखां का इकलौता पुत्र वहीं पेट दर्द से तड़प कर मर गया। पुत्र शोक में बिलखते हुए बारेखां से बाबा जी ने स्पष्ट कहा- ‘मैं किसी क्रूर जीव-हत्यारे को बारठ में नहीं रहने दूंगा।

तुम यह जगह छोड़ कर कहीं और ठिकाना बना लो। बाबा जी का आदेश मान कर बारेखां ने बारठ को छोड़ दिया। उसके पुत्र को जीवन दान मिला। पठान ने बारठ से कुछ दूर जाकर अपना आवास बनाया। पहले तो वह धरती पर खेमा (कनात) गाड़ कर रहता था, किन्तु बाद में उसने एक छोटा दुर्ग और उसके बीच कुछ आवासीय भवन बनवा लिए। बाबा जी ने स्वयं जाकर इस स्थान का नाम पठानकोट रखा जो अब भी विद्यमान है। भगवान् की लीलाएं अनंत हैं। 149 वर्ष के जीवन में आप जहां भी गए वह स्थान तीर्थ बन गया। उदासीनाचार्य का 529वां प्रकाशोत्सव 24 सितम्बर 2023 को सम्पूर्ण उदासीन-जगत् की ओर से बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है। सम्पूर्ण उदासीन-जगत्, वेदी वंश एवं समुच्चय राष्ट्र को हार्दिक बधाई।

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