वडहंसु महला १ घरु २ ॥ मोरी रुण झुण लाइआ भैणे सावणु आइआ॥ तेरे मुंध कटारे जेवडा तिनि लोभी लोभ लुभाइआ॥ तेरे दरसन विटहु खंनीऐ वंञा तेरे नाम विटहु कुरबाणो ॥ जा तू ता मै माणु कीआ है तुधु बिनु केहा मेरा माणो ॥
हे बहिन! सावन (का महिना) आ गया है (सावन की काली घटा देख के सुंदर) मोरों ने मीठे गीत गाने शुरू कर दिए हैं (और पैलें डालनी (नाचना) शुरू कर दी हैं। (हे प्रभु!) तुम्हारी यह सुंदर कुदरत मेरे जैसे जिव-स्त्री के लिए मनो कटार है (जो मेरे अंदर बिरहा की चोट लगा रही है) फंदा है, इस ने मुझे तेरे दीदार की प्यारी को मोह लिया है (और मुझे तेरे चरणों में खींचे जा रही है)। (हे प्रभु!) तेरे इस सुंदर सरूप से जो अब दिख रहा है मैं
सदके हूँ (तुम्हारा यह रूप मुझे तुम्हारा नाम याद करवा रहा है, और) मैं तेरे नाम से कुर्बान हूँ। (हे प्रभु!) क्योंकि तूँ(इस कुदरत में मुझे दिख रहा है) मैंने यह कहने का साहस किया है (की तेरी यह कुदरत सुहावनी है)। अगर कुदरत में तू न दिखे तो यह कहने में क्या स्वाद रह जाये की तेरी कुदरत सुन्दर है?