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सानूं दे लोहड़ी तेरी जीवे जोड़ी, जानिए लोहड़ी से जुड़ी कुछ खास बातें

बदलते परिवेश में त्यौहारों का स्वरूप भी बदल गया है। वह समय लद गया जब बच्चे गलियों में झुंडों के झुंड लोहड़ी के गीत गाते और घर-घर जाकर लोहड़ी मांगते। हर घर से कुछ न कुछ जो भी मिलता, उसे लेकर घर को दुआएं देकर अगला दरवाजा खटखटा देते। वैसे तो दरवाजा खटखटाने की जरूरत भी नहीं पड़ती थी क्योंकि इस दिन सभी लोग अपने घर का दरवाजा खुला ही रखते थे। दिनभर मेलेसा माहौल लगता था।

लोहड़ी मांगना और देना एक शगुन समझा जाता था। आज के दौर में भी ये सब कुछ हो रहा है मगर जहां तक लोहड़ी मांगने की बात है वह केवल निम्न वर्ग तक ही सीमित रह गई है। मध्यवर्गीय लोग लोहड़ी मांगने में अपनी तौहीन समझने लगे हैं। शायद यही कारण है कि गली-मोहल्लों में लोगों का जमावड़ा भी कम हो गया है। एक वक्त था जब घर-घर से लकड़ियां इकट्ठा कर रात को लोहड़ी मनाते युवा व बच्चे एक जगह आग जलाते और मोहल्ले के लोग उसी के इर्द-गिर्द तिल-मूंगफली ले इकट्ठा हो ‘लोहड़ी’ को नमस्कार करते, अग्नि में तिलों का भोग डालते, एक-दूसरे को बधाई देते।

एकत्रित होना तो अभी भी जारी है लेकिन पहले जो दिल की बातें आपस में आग तापते सांझी होती थीं, वे आज नहीं होतीं। शायद यही वजह है कि अब संबंधों में गरिमा भी खत्म हो रही है। गांवों के माहौल में भी अब फर्क देखने को मिलता है। गांव में लोहड़ी के कुछ दिन पहले छोटे बच्चे टोलियां बनाकर सुरीले गीत अलापते हुए घर से लोहड़ी के लिए कुछ लकड़ियां, उप्पले (पाथियां) या कोई भी लकड़ी का पुराना सामान (जो खराब हो चुका हो) इकट्ठा करते हैं और उनके गीतों में ऋतु बोलती सुनाई देती है :

हुल्ले नी माएं हुल्ले
दो बेरी पत्तर झुल्ले
दो झुल्ल पइयां खजूरां
खजूरां सुट्टेया मेवा
इस नड्ढे दा करो मंगेवा

लोहड़ी के गीतों में तरल विचार बाढ़ के पानी की तरह जिस तरफ उसका मन चाहे चल पड़ता है। किसीकिसी गीत में इतिहास के कुछ अंश जुड़े हुए हैं। सुंदर- मुंदरिए गीत में दुल्ले भट्टी के जीवन की एक घटना की तर्फ सीधा संकेत मिलता है। एक लोककथा के अनुसार किसी गरीब ब्राह्मण की दो बेटियां सुंदरी और मुंदरी थीं। गरीब ब्राह्मण की बेटियों पर उस समय के मुगल शासक के एक सेनापति की नजर पड़ गई। सेनापति ने यह मांग रख दी कि उन दोनों लड़कियों में से एक का विवाह उसके साथ कर दिया जाए, जबकि ब्राह्मण पहले ही अपनी बेटी सुंदरी का रिश्ता तय कर चुका था।

गरीब ब्राह्मण ने अपने समधी परिवार को जल्द से जल्द लड़की को विदा कर ले जाने की बात कही। लड़के वाले सारी बात सुनकर डर गए। जब लड़की का पिता निराश होकर वापस घर लौट रहा था तो रास्ते में उसे ‘दुल्ला भट्टी’ डाकू मिल गया। सारी गाथा सुनकर उसने ब्राह्मण को मदद करने का आश्वासन दिया और यह भी भरोसा दिलाया कि वह उसकी दोनों बेटियों को अपनी बेटियां बनाकर उनकी शादी करेगा। दुल्ला भट्टी लड़के वालों के घर गया और गांव के सारे नागरिकों को इकट्ठा करके रात कोही जंगल में सुंदरी के साथ-साथ मुंदरी का विवाह भी योग्य वर ढूंढकर कर दिया।

गरीब ब्राह्मण की लड़कियों के कपड़े विवाह के समय फटे-पुराने थे। दुल्ला भट्टी के पास उस समय बेटियों को विदाई के वक्त देने के लिए शक्कर के सिवाय कुछ नहीं था इसलिए दुल्ला भट्टी ने शगुन के तौर पर उनकी झोली में शक्कर डाल दी। उस दिन के बाद से लोगों के मन से सेनापति का भय निकल गया और यह त्यौहार आग जलाकर मनाया जाने लगा। भाइयों द्वारा अपनी बहनों के लिए लोहड़ी लेकर उनके ससुराल जाने की प्रथा का आधार भी यही लोकगाथा है। गौरतलब है कि इस पूंजीवाद के दौर में शक्कर तो न जाने कहां खो गई है। शक्कर की जगह बड़े-बड़े उपहारों ने ले ली है।

नए जन्मे लड़के के लिए लड़की के मायके उसके ससुराल में सोने की कोई चीज, परिवार के सभी सदस्यों के लिए कपड़े और जो भी उनसे बन पाए इत्यादि लेकर जाना आम बात हो गई है। कई घरों में लोहड़ी के दिन बाकायदा बड़े कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। यहां खाने-पीने के अलावा नाच-गाने का भी प्रबंध होता है। शहरों में तो यह बात आम देखने को मिलती है, लेकिन इस बात से गांव वाले भी अछूते नहीं रहे। गांव में तो खासकर ढोल की ताल पर लड़के-लड़कियां खूब नाचते हैं और अपनी खुशी का इजहार करते हैं।

शहरों में आजकल ढोल की जगह डी.जे. ने ले ली है। कई डी.जे. वालों ने तो आकर्षक रंगों के डिस्को तक बना लिए हैं जिस घर में लड़का जन्म लेता है उस घर के लोग जान-पहचान वालों के घरों में अब मूंगफली रेवड़ियों की जगह मिठाई के डिब्बे बांटते हैं। फिर रात होते ही सभी लोग उनकी खुशी में शरीक हो जाते हैं। समापन पर फिर से इंतजार शुरू हो जाता है आने वाले साल की नई लोहड़ी का।

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