श्री गुरु ग्रंथ साहिब के संकलनकर्त्ता पांचवें गुरु श्री गुरु अर्जुन देव की वाणी भारत की एक ऐसी अमूल्य धरोहर है जो हमारी संस्कृति, वैश्विक चेतना तथा जीव मात्र के प्रति प्रीति और सदाशयता की साक्षी है। सच्चाई पर प्राण न्यौछावर करने वाले तथा संगीत को संत भाषा देने वाले श्री गुरु अर्जुन देव का स्थान 10 सिख गुरुओं में अपने ढंग का एक अलग स्थान है। पंचम पातशाह श्री गुरु अर्जुन देव जी का गुरुगद्दी काल 1581-1606 तक रहा।
आप श्री गुरु राम दास जी और बीबी भानी जी के छोटे पुत्र थे। श्री गुरु अर्जुन देव जी का जन्म 15 अप्रैल, 1563 में गोइंदवाल साहिब में हुआ था। गुरु जी बाल्यकाल से ही अत्यंत तेजस्वी थे। 4 वर्ष की आयु में आपने रागों पर आधारित गुरवाणी का गायन आरंभ कर दिया था। 11 वर्ष की आयु में आप अनेक भाषाओं और रागरागिनियों के मर्मी कलावंत बन चुके थे। सन् 1579 में आपका विवाह जालंधर के माऊ गांव के कृष्णचंद की सुपुत्री माता गंगा जी के साथ हुआ।
आपके गायन में एक अलौकिक कशिश थी। श्री गुरु अर्जुन देव जी के नाना तीसरे गुरु अमरदास जी गुरु जी की विद्वता के इतने कायल थे कि उन्हें ‘वाणी का बोहिथ’ यानी ‘वाणी का जहाज’ मानते थे। श्री गुरु अर्जुन देव जी ने केवल 43 वर्ष की आयु पाई थी लेकिन आपके कार्यों को देखा जाए तो आश्चर्य होता है। कुल 15 वर्षों में आपने इतने कार्य किए जिनके लिए कई पीढ़ियां लग जाएं तो भी काम पूरा न हो। श्री गुरु अर्जुन देव जी की वाणी कई भाषाओं में लहलहाई है। सुखमणि आपकी सर्वोत्कृष्ट रचना है जिस पर ब्रजभाषा का गहरा रंग है।
कुछ रचनाओं में संस्कृत और प्राकृत का गहरा पुट है तो अन्यों में फारसी और लैहंदी का प्रभाव देखने को मिलता है। गुरु जी की रचनाओं का एक बड़ा भाग पंजाबी के रंग में रंगा है लेकिन यह पंजाबी ऐसी है कि जो पंजाब क्षेत्र तक सीमित नहीं है। इसमें अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों को उदारतापूर्वक शामिल किया गया है। वास्तव में उन्होंने पंजाबी को एक संत भाषा में ढाल देने का कार्य किया है। आपने श्री आदिग्रंथ की रचना की।
आपने पहले के चार गुरुओं तथा समकालीन संतों की वाणी का प्रामाणिक पाठ पूछ-पूछ कर तैयार किया जिनमें लगभग 15 हजार से अधिक बंद और 3 हजार के लगभग शब्द शामिल हैं। इन रचनाओं को संग्रहित और संकलित कर आपने श्री आदिग्रंथ की रचना की। श्री आदिग्रंथ में पांच गुरु साहिबान की वाणी के साथसाथ 30 भगतों, भाटों व सिखों की वाणी संग्रहित की गई। इसमें बाद में दशम गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने नौवें गुरु तेग बहादुर जी की वाणी भी शामिल की। श्री आदिग्रंथ साहिब में कुल 5,894 शब्द हैं जिनमें से 2,218 शब्दों के रचयिता स्वयं पंचम पातशाह हैं।
गुरु ग्रंथ साहिब जी में 305 अष्टपदियां, 145 छंद, 22 वारें, 471 पऊड़ी संग्रहित हैं। समस्त वाणी गायन के लिए है जिसे 31 रागों में गायन करने का विधान है। इसमें प्रमुख विशेषता यह है कि शब्द का गायन किस राग में किया जाए उसका उल्लेख भी साथ किया गया है। इस महान ग्रंथ में पृष्ठों की संख्या 1,430 है। इस पवित्र ग्रंथ का संपादन करने में श्री गुरु अर्जुन देव जी को 3 वर्ष का समय लगा। श्री गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश श्री हरिमंदिर साहिब में 16 अगस्त, 1604 में किया गया था। पंचम पातशाह ने 3 अक्तूबर, 1588 में मुस्लिम पीर साईं मियां मीर जी से श्री हरिमंदिर साहिब का शिलान्यास करवाया।
आपने 1590 में तरनतारन के सरोवर का निर्माण, 1594 में करतारपुर में थम्म साहिब गुरुद्वारा, 1596 में तरनतारन, 1597 में छेहर्टा साहिब, 1597 में ही श्री हरगोबिंदपुरा, 1599 में लाहौर में बाऊली साहिब और 1602-03 में अमृतसर में अनेक निर्माण कार्य संपन्न कराए। मुगल सम्राट जहांगीर श्री गुरु अर्जुन देव जी के बढ़ते प्रभाव और लोकप्रियता के कारण उनसे द्वेषभाव रखने लगा था। कश्मीर जाते समय उसने गुरु जी को लाहौर में मिलने को कहा और यह फरमान दिया कि गुरु जी श्री आदिग्रंथ में इस्लाम धर्म के प्रवर्तक मोहम्मद साहिब की स्तुति में लिखें और इस्लाम धर्म अपना लें।
गुरु जी के इंकार करने पर काजी ने फतवा दिया कि गुरु जी को कष्टदायक मृत्यु की सजा दी जाए। 5 दिन तक गुरु साहिब को खौलते हुए पानी के बड़े कड़ाहे में रखकर ऊपर से गर्म रेत डाली जाती रही लेकिन गुरु जी सहज और शांतिपूर्वक सब यातनाएं झेलते रहे। 5 दिन के पश्चात् राग-रागनियों के मर्मी कलावंत और वाणी के बोहिथ इस महान गुरु ने अविचल भाव से ‘तेरा कीया मीठा लागे, हरिनाम पदार्थ नानक मांगे’ गाते प्राण त्याग दिए और शहीदों के सरताज बन गए।