Today Hukamnama : धनासरी महला १ ॥ जीउ तपतु है बारो बार ॥ तपि तपि खपै बहुतु बेकार ॥ जै तनि बाणी विसरि जाइ ॥ जिउ पका रोगी विललाइ ॥१॥ बहुता बोलणु झखणु होइ ॥ विणु बोले जाणै सभु सोइ ॥१॥ रहाउ ॥ जिनि कन कीते अखी नाकु ॥ जिनि जिहवा दिती बोले तातु ॥ जिनि मनु राखिआ अगनी पाइ ॥ वाजै पवणु आखै सभ जाइ ॥२॥ जेता मोहु परीति सुआद ॥ सभा कालख दागा दाग ॥ दाग दोस मुहि चलिआ लाइ ॥ दरगह बैसण नाही जाइ ॥३॥ करमि मिलै आखणु तेरा नाउ ॥ जितु लगि तरणा होरु नही थाउ ॥ जे को डूबै फिरि होवै सार ॥ नानक साचा सरब दातार ॥४॥३॥५॥ {पन्ना 661-662}
पद्अर्थ: तपतु है = दुखी होता है। बारो बार = बार बार। तपि तपि = तप तप के, दुखी हो हो के। बेकार = विकारों में। जै तनि = जिस शरीर में। विसरि जाइ = भूल जाती है। पका रोगी = कोढ़ के रोग वाला।1।
बहुता बोलणु = (सहेड़े हुए दुखों के बारे में) बहुते गिले। झखणु = व्यर्थ बकवास। सोइ = वह प्रभू।1। रहाउ।
जिनि = जिस (परमात्मा) ने। तातु = तुरंत। अगनी पाइ = (शरीर में) आग (गरमी) पा के। मनु = जिंद। पवणु = श्वास। वाजै = बजता है, चलता है। आखै = (जीव) बोलता है। सभ जाइ = और जगह।2।
दाग दोस = दोशों का दाग़। मुहि = मुँह पर। लाइ = लगा के। जाइ = जगह।3।
करमि = मेहर से। जितु लगि = जिसमें लग के। को = कोई जीव। सार = संभाल।4।
Today Hukamnama अर्थ : (सिफत सालाह की बाणी को विसार के) जिंद बार बार दुखी होती है, दुखी हो हो के (फिर भी) और ही विकारों में दुखी होती है। जिस शरीर में (भाव, जिस मनुष्य को) प्रभू की सिफत सालाह की बाणी भूल जाती है, वह सदा यूँ विलकता है जैसे कोढ़ के रोग वाला आदमी।1। (सिमरन से खाली रहने के कारण सहेड़े हुए दुखों की बाबत ही) बहुते गिले करते रहना व्यर्थ का बोल-बुलारा है क्योंकि वह परमात्मा हमारे गिले किए बिना ही (हमारे रोगों की) सार जानता है।1। रहाउ।
(दुखों से बचने के लिए उस प्रभू का सिमरन करना चाहिए) जिसने कान दिए, आँखें दीं, नाक दिया, जिसने जीभ दी जो फटाफट बोलती है, जिसने हमारे शरीर को गरमी दे के जीवात्मा (शरीर में) टिका दी; (जिसकी कला से शरीर में) श्वास चलता है और मनुष्य हर जगह (चल-फिर के) बोल-चाल कर सकता है।2।
जितना भी माया का मोह है दुनिया की प्रीति है, रसों के स्वाद हैं, ये सारे मन में विकारों की कालिख ही पैदा करते हैं, विकारों के दाग़ ही लगाते जाते हैं। (सिमरन से सूने रह के विकारों में फस के) मनुष्य विकारों के दाग़ अपने माथे पर लगा के (यहाँ से) चल पड़ता है, और परमात्मा की हजूरी में इसे बैठने के लिए जगह नहीं मिलती।3।
(पर, हे प्रभू! जीव के भी क्या वश?) तेरा नाम सिमरन (का गुण) तेरी मेहर से ही मिल सकता है, तेरे नाम में लग के (मोह और विकारों के समुंद्र में से) पार लांघा जा सकता है, (इनसे बचने के लिए) और कोई जगह नहीं है।
हे नानक! (निराश होने की आवश्यक्ता नहीं) अगर कोई मनुष्य (प्रभू को भुला के विकारों में) डूबता भी है (वह प्रभू इतना दयालु है कि) फिर भी उसकी संभाल होती है। वह सदा-स्थिर रहने वाला प्रभू सब जीवों को दातें देने वाला है (किसी से भेद-भाव नहीं रखता)।4।3।5।