मुंबई : फिल्म की हीरोइन भूमि पेडनेकर हैं। फिल्म ‘पति, पत्नी और वो’ के बाद से उनका कमाल न सिनेमाघरों में दिखा और न ही ओटीटी पर। गलती उन्हीं की है। दर्शक उनको दमदार कलाकार के रूप में पसंद करते हैं, वह न जाने क्यों स्टार बनने के पीछे भागती रहीं। फिल्म ‘भक्षक’ भूमि के लिए अपनी जमीन पर घर वापसी की तरह की फिल्म है। वह जमीन जो उनको सिनेमा में पालने, पोसने वाली कंपनी यशराज फिल्म्स ने ‘दम लगा के हइशा’ में उनके लिए तैयार की थी। नारी सशक्तिकरण की वैशाली सिंह एक ऐसी मिसाल है, जिसे बनाने के लिए खुद शाहरुख खान ने दिलचस्पी ली। छह साल हो गए वैशाली सिंह की शादी को। मां नहीं बनी अब तक। समझ सकते हैं कि परिवार और समाज का दबाव कितना है उस पर अपनी गोद हरी करने का। काम भी वह ऐसा करती है जो छोटे शहरों की बेटियों के लिए ‘अजूबा’ माना जाता है।
सटीक कास्टिंग का करिश्मा
यूं तो फिल्म ‘भक्षक’ की रीढ़ मजबूत करने में इसके सहायक कलाकारों संजय मिश्रा, आदित्य श्रीवास्तव, सत्य काम आनंद, मुरारी कुमार, दुर्गेश कुमार, साई तम्हणकर, समता सुधीक्षा का भी बड़ा हाथ है, लेकिन बात पहले फिल्म की नायक भूमि पेडनेकर की। भूमि नेटफ्लिक्स की इस नई फिल्म में वैशाली सिंह के किरदार में हैं। ठेठ बिहारी लहजा पकड़ने में हालांकि उन्हें मेहनत काफी हुई है
कहानी यूट्यूब चैनल वाली मैडम की
बिहार के मुजफ्फरपुर शेल्टर होम कांड की कहानी से प्रेरित फिल्म ‘भक्षक’ में ये जगह मुनव्वरपुर है। छोटे से यूट्यूब चैनल की एक महिला पत्रकार को एक रात एक शख्स वह ऑडिट रिपोर्ट थमा जाता है, जिस पर राज्य सरकार बीते तीन महीने से कोई कार्रवाई नहीं कर पाई है। रिपोर्ट इस बात की है कि मुनव्वरपुर शेल्टर होम में रह रहीं बच्चियों के साथ दुष्कर्म किया जा रहा है। सामने ये बात भी आती है कि जो भी बच्ची इस बलात्कार का विरोध करती है, उसका नामो निशान ही मिटा दिया जाता है। वैशाली इस धर्मयुद्ध में उतर पड़ती है। अधेड़ उम्र के कैमरामैन भास्कर ही उनके इकलौते सारथी हैं। पति को ये पसंद नहीं। धमकी आने के बाद तो वह और भड़क जाता है। दीदी, जीजाजी वगैरह भी साथ नहीं देते। खोजते, तलाशते वह उस युवती के पास पहुंच जाती है जिसने कभी इस शेल्टर होम में खानसामा की नौकरी की थी। मामला कभी बनता दिखता है, कभी उलझता दिखता है और कभी यूं लगता है कि वैशाली ये जंग हार जाएगी। कहानी में एक ट्विस्ट एक महिला आईपीएस अफसर का है जो सूबे की सियासत की कठपुतली बन चुकी व्यवस्था की डोर से बंधी है। जो कुछ करना है, वह खुद वैशाली सिंह को ही करना है।
सही पड़े पुलकित के अधिकतर पांसे
और, जो कुछ वैशाली सिंह बनी भूमि पेडनेकर इस फिल्म में करती है, वह शुरुआती सुस्ती के बाद जब फिल्म की कहानी के साथ रवानी में आता है तो फिल्म को बिना पूरा देखे उठने का मन नहीं होता। निर्देशक पुलकित ने ज्योत्सना नाथ के साथ मिलकर फिल्म की पटकथा शुरुआती सद्दी की उड़ान के बाद गजब के मांझे से कसी है। छोटे छोटे किरदार इसकी बुनावट का फूल फुनरा बनकर इसे चमकाते रहते हैं। संजय मिश्रा चैनल के कैमरामैन के रूप में अपनी जगह जमे रहते हैं। सोनू के किरदार में सत्य काम आनंद इस कहानी का असल तड़का हैं। वेब सीरीज ‘पंचायत’ वाले दुर्गेश कुमार का प्रपंच भी रंग जमाने में मदद करता है। समता सुधीक्षा का किरदार एक उत्प्रेरक का है जो महिला खानसामा को शेल्टर होम से भागने में मदद करता है। साई तम्हणकर का किरदार कमजोर है। शायद बिहार की बलिहारी है जिसने लिखने वालों को उन्हें लेडी सिंघम होने से बचाए रखा। आदित्य श्रीवास्तव फिल्म के खलनायक बने हैं और उनका हाव भाव बताता है कि बड़े परदे में दिखने वाली खलनायकों की भारी कमी में वह अब भी उम्मीद की किरण बन सकते हैं। फिल्म की सिनेमैटोग्राफी बढ़िया है। एडिटिंग कमजोर। बैकग्राउंड म्यूजिक और इसका गीत संगीत थोड़ा बेहतर होता और बिहार के लोकवाद्यों की संगत में रचा जाता तो ये सुहागा, सोने को और चमका सकता था। फिल्म को 3.5 स्टार रेटिंग देते हैं।