China News : आजकल अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप चर्चा में बने हुए हैं। वे जो फैसले ले रहे हैं, उससे दुनिया के कई देशों में चिंता का माहौल है। अमेरिका फर्स्ट की नीति पर चलने का दावा करने वाले ट्रंप कई अध्यादेशों पर हस्ताक्षर कर चुके हैं। जिसमें चीन, कनाडा और मैक्सिको जैसे देशों के खिलाफ टैरिफ लगाना शामिल है। इसके साथ ही ट्रंप विश्व स्वास्थ्य संगठन, पेरिस जलवायु परिवर्तन संधि व मानवाधिकार परिषद आदि संगठनों से हट चुके हैं। उनके इस रवैये की जानकार आलोचना कर रहे हैं। उनका कहना है कि इससे न अमेरिका को लाभ होगा और न ही विश्व को। ऐसे में अमेरिका की साख दुनिया में कमजोर होगी।
इस मामले पर CGTN Hindi संवाददाता अनिल पांडेय ने जेएनयू में अंतर्राष्ट्रीय मामलों के प्रोफेसर स्वर्ण सिंह के साथ बातचीत है। प्रो. सिंह कहते हैं कि राष्ट्रपति ट्रंप को इस बात की आशंका रहती है कि शायद विश्व के सभी देश अमेरिका का फायदा उठाते हैं। उन्हें खासकर व्यापार घाटे की चिंता रहती है। साथ ही उन्हें लगता है कि टैरिफ बढ़ाने से वे अन्य देशों पर दबाव बनाने में कामयाब होंगे। और वे इन राष्ट्रों के साथ बातचीत के दौरान टैरिफ के इस्तेमाल से व्यापार घाटे को कम कर पाएंगे। जाहिर है कि उनकी यह सोच पहले कार्यकाल में नजर आयी थी और उनके चुनावी भाषणों में भी यह दिखी थी।
लेकिन उनके पिछले कार्यकाल में यह स्पष्ट तौर पर देखा गया कि टैरिफ बढ़ाने से समस्या का समाधान नहीं निकला। शायद फिर से वही इतिहास खुद को दोहराने जा रहा है। साल 2016 में जब उनका दूसरा कार्यकाल शुरू हुआ था उस दौरान अमेरिका का कुल व्यापार घाटा लगभग 470 अरब डॉलर के आसपास था। राष्ट्रपति ट्रंप ने तब भी टैरिफ युद्ध, तकनीक और सूचना युद्ध शुरू किए थे। लेकिन इनका कोई असर व्यापार घाटे पर नहीं दिखा। क्योंकि उनका कार्यकाल खत्म होने तक अमेरिका का व्यापार घाटा 675 अरब डॉलर पहुंच गया था।
प्रो. सिंह के अनुसार, अधिकतम दबाव बनाकर एक अच्छी डील करके रोजगार बढ़ाने और व्यापार घाटा कम करने की ट्रंप की रणनीति कारगर नहीं होने वाली है। जैसा कि हम जानते हैं कि आज चीन विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। इतना ही नहीं अमेरिका और चीन क्रमशः 27 ट्रिलियन डॉलर और 20 ट्रिलियन डॉलर की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हैं। इनके बाद तीसरे, चौथे और पांचवें नंबर की अर्थव्यवस्थाएं बहुत छोटी हैं।
ऐसे में अगर अमेरिका और चीन का आपस में तालमेल बिगड़ता है और संबंधों में तनाव आता है तो इसका नकारात्मक असर विश्व पर जरूर पड़ेगा। इसके अलावा राष्ट्रपति ट्रंप विश्व स्वास्थ्य संगठन, मानवाधिकार परिषद और पेरिस जलवायु परिवर्तन संधि से हट चुके हैं। जबकि यूएसएड से दिए जाने वाले सहायता कार्यक्रमों पर रोक लगा दी गयी है। यह पूछे जाने पर कि अमेरिका के हालिया फैसलों ने सभी को निराश किया है, इस पर प्रो. सिंह कहते हैं कि अमेरिका पिछले 8-9 दशकों से अपने राष्ट्रहितों को लेकर आगे बढ़ता रहा है। लेकिन राष्ट्रहित की परिभाषा व रणनीति आदि में काफी बदलाव आ चुका है। जिसके तहत अमेरिका सरकार अपने देश की सीमा के भीतर ज्यादा ध्यान केंद्रित करना चाहती है।
ऐसे में चीन, भारत के साथ-साथ यूरोप के देश लगातार कोशिश कर रहे हैं कि इससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बाज़ारों में न कोई उथल-पुथल हो और न आपसी तालमेल में कोई संकट पैदा हो। ये देश इस बात पर ध्यान दे रहे हैं कि अगर वैश्विक स्तर पर नेतृत्व को लेकर ज्यादा जिम्मेदारी लेने की बात आये तो तालमेल बना रहे। साथ ही, यह भी ध्यान देने वाली बात है कि भारत और चीन के बीच संबंध बेहतर हो रहे हैं। विशेष रूप से पिछले साल अक्तूबर महीने में दोनों देशों के बड़े नेताओं की रूस के कज़ान में मुलाकात के बाद द्विपक्षीय रिश्तों में सुधार आया है। जो क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय चुनौतियों के निपटारे के लिए एक अच्छा संकेत है।
(प्रस्तुति- अनिल पांडेय, चाइना मीडिया ग्रुप, पेइचिंग)