Ozone Layer : प्रौद्योगिकी के युग में मनुष्य ने पिछले कुछ दशकों में भले ही विज्ञान के क्षेत्र में अनेक बुलंदियों को छुआ है लेकिन इसी दौरान उसने प्रकृति के साथ कदम-कदम पर जिस प्रकार की छेड़छाड़ की है और बड़े पैमाने पर प्रकृति के कार्यों में हस्तक्षेप कर उसे मिटाने पर ही आमादा दिखाई दिया है, उसके अनेक भयानक दुष्परिणाम अब रह-रहकर हमारे सामने आ रहे हैं।
थोड़ी सी बारिश होते ही बाढ़, सालभर सूखा, गर्मी के मौसम में प्रचण्ड तूफान, आसमान से बरसती आग, तपते पहाड़, पर्वतीय क्षेत्रों में बेमौसमी बर्फबारी, पिघलते ग्लेशियर, नदियों और समुद्रों की बिगड़ती सेहत इत्यादि इंसानी करतूतों के ही भयावह परिणाम हैं। दरअसल मनुष्य आज प्रकृति की हर उस अमूल्य निधि को मिटाने को आतुर है, जो उसके विकास या प्रगति के रास्ते में आड़े आती है। इसी के चलते धरती से बहुत बड़ी तादाद में पेड़-पौधों का सफाया किया जा चुका है, नदियों-समुद्रों को बुरी तरह प्रदूषित कर दिया गया है, वाहनों और औद्योगिक इकाईयों ने वातावरण को इस कदर प्रदूषित कर दिया है कि दमघोटू हवा में दम उखड़ने लगता है और अनेक असाध्य बीमारियां जन्म ले रही हैं।
नष्ट होती ओजोन परत प्रकृति के साथ इसी खिलवाड़ के चलते पृथ्वी पर जीवन की रक्षा कर रही ओजोन परत को भी खतरा पैदा हो गया है। वातवरण में उत्सर्जित की जा रही जहरीली गैसों के कारण ओजोन परत में छिद्र हो गया है, जिसे भरने के कई दशकों से प्रयास हो रहे हैं लेकिन इस कार्य में अभी तक सफलता हासिल नहीं हुई है।
ओजोन परत का एक बड़ा छिद्र अंटार्कटिका के ऊपर स्थित है, जो अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन को माप रहे कुछ ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने पहली बार 1980 के आसपास देखा था और इसे देखकर उनके होश उड़ गए थे। हालांकि सितम्बर-अक्तूबर में अंटार्कटिका के वायुमंडल में ओजोन परत में काफी रिक्तता आ जाती है, जिन्हें ‘अंटार्कटिक ओजोन छिद्र’ के नाम से जाना जाता है लेकिन वैज्ञानिकों ने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि ओजोन छिद्र का आकार इतना बड़ा होगा।
‘नासा’ ने वर्ष 1987 में अंटार्कटिका संबंधी रिपोर्ट में ओजोन की परत में हुए छिद्रों की पुष्टि कर दी थी। उसके बाद ही जरूरत महसूस की गई कि पूरी दुनिया में ओजोन के क्षय को रोकने के लिए प्रयास शुरू किए जाएं और इसकी शुरुआत हुई 1987 में ही मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल से इस छिद्र का आकार अब उत्तरी अमेरिका के बराबर है, जिसे भरने के प्रयास हो रहे हैं और उम्मीद जताई जा रही है कि वर्ष 2060 तक इस कार्य में सफलता मिल सकती है।
अंटार्कटिका महाद्वीप में वातावरण के ऊपरी हिस्से में, जहां ओजोन गैस होती है, सर्दियों में वहां तापमान प्राय: माइनस 80 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, जिससे इन सतहों पर बर्फीले बादलों का निर्माण होने के चलते रासायनिक प्रक्रियाएं होने लगती हैं और जैसे-जैसे अंधेरी सर्दियां कम होती हैं तथा सूरज की रोशनी वापस आने लगती है, उसमें होने वाली रासायनिक प्रक्रियाओं के कारण ओजोन परत नष्ट हो जाती है। एक शोध के अनुसार वर्ष 1960 के मुकाबले इस क्षेत्र में ओजोन की मात्रा 40 फीसदी तक कम हो चुकी है।
ओजोन परत के संरक्षण के लिए जन-जागरूकता फैलाने तथा ओजोन परत की कमी की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए हालांकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हानिकारक गैसों के उत्पादन और वातावरण में इन गैसों के उत्सर्जन को सीमति करने के प्रयासों पर जोर दिया जाता रहा है तथा आमजन को इसके लिए जागरूक करने के प्रयास भी किए जाते रहे हैं किन्तु अपेक्षित लक्ष्य हासिल नहीं हो पा रहा है।
ओजोन परत कैसे बनती है, यह कितनी तेजी से कम हो रही है और इस कमी को रोकने के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं, इसी संबंध में जागरूकता पैदा करने के लिए 1994 से प्रतिवर्ष ‘विश्व ओजोन दिवस’ भी मनाया जा रहा है किन्तु चिन्ता की बात यह है कि पिछले कई वर्षों से ओजोन दिवस मनाए जाते रहने के बावजूद ओजोन परत की मोटाई लगातार कम हो रही है। पृथ्वी पर ओजोन परत के संरक्षण के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 16 सितम्बर को यह दिवस मनाया जाता है, जिसे ‘विश्व ओजोन परत संरक्षण दिवस’ के नाम से भी जाना जाता है।