बेहद अजीब हैं हमारे द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले साबुन का इतिहास

साबुन को देखकर अनेक बार सवाल उठता है कि आखिर साबुन कितना पुराना है, और वह कैसे बना? मानव समाज ने इसका इस्तेमाल कैसे शुरू किया? इसका जवाब खोज पाना बहुत मुश्किल है क्योंकि सफाई के लिए साबुन जैसी वस्तुओं का प्रयोग उतना ही पुराना है जितना कि मानव सभ्यता । कहा जाता है कि.

साबुन को देखकर अनेक बार सवाल उठता है कि आखिर साबुन कितना पुराना है, और वह कैसे बना? मानव समाज ने इसका इस्तेमाल कैसे शुरू किया? इसका जवाब खोज पाना बहुत मुश्किल है क्योंकि सफाई के लिए साबुन जैसी वस्तुओं का प्रयोग उतना ही पुराना है जितना कि मानव सभ्यता । कहा जाता है कि मनुष्य नहाने के लिए जब सबसे पहले नदी या ताल-पोखरों में गया तो उसे मालूम पड़ा कि शरीर में मिट्टी रगड़ने से त्वचा और अधिक साफ और सुंदर हो जाती है।

यदि वह मिट्टी कुछ चिकनी हो तो सफाई और भी सरलता से हो जाती थी। इसी तरह से मिट्टी के खोजने में उसे कुछ खास तरह की मिट्टी मिलने लगी। उसी से साबुन की दुनिया शुरू होती है। साबुन अंग्रेजी के ‘सोप’ शब्द का हिंदी अर्थ है। सोप शब्द लैटिन भाषा के ‘सोपो’ शब्द से आया है। इसके बारे में एक दिलचस्प कहानी कही जाती है। बताया जाता है कि तीन हजार साल पहले रोम के निकट सोयो पहाड़ी पर वहां के निवासी पशुओं की बलि देते थे, फिर उसे जला दिया जाता था।

इससे बलि दिए गए पशुओं का रक्त और चर्बी राख में मिल जाती थी। बरसात होने के बाद यह राख एक जगह एकत्र हो जाती थी। यह राख चिकनी होती थी, इसलिए कुछ लोगों ने इससे अपने कपड़े धोए और नहाया तो उन्हें लगा कि इससे काफी अच्छी तरह सफाई हो जाती थी। तब अनेक लोग इस राख को ले जाकर अपने घर में जमा करने लगे। घर में जमा की गई इस राख को सेयो कहते थे। इसी सेयो से फिर लैटिन भाषा का सेपी शब्द बना फिर अंग्रेजी में सोप हुआ।

इतिहासकार बताते हैं कि प्राचीनकाल में मैसोपोटामिया के लोग भी साबुन जैसी चीज का प्रयोग करते थे। भारत में सिंधु घाटी सभयता के लोग भी राख, रेहू और मुल्तानी मिट्टी का प्रयोग सफाई के लिए साबुन की तरह करते थे। 100 ईस्वी में फ्रांस में एक विशेष प्रकार के साबुन बनाए जाने का प्रमाण मिलता है। 700 ईस्वी में इटली के शिल्पकार भी साबुन बनाते थे। ब्रिटेन में 11वीं शताब्दी में साबुन बनाना शुरू हुआ। साबुन के इस प्राचीन इतिहास के बाद आधुनिक साबुन के इतिहास की खोज देखी जाती है।

जानकारियों के अनुसार सत्रहवीं शताब्दी में फ्रांसीसी वैज्ञानिक निकोलस लीबांक ने नमक से कास्टिक सोडा बनाने की विधि खोजी। कास्टिक सोडा की खोज के बाद कहीं भी साबुन बनाना सरल हो गया। कास्टिक सोडा की खोज के कुछ ही सालों बाद इंग्लैंड ने पहला सोप पेटेंट जारी किया। इसके बाद साबुनों का नया संसार बना। आज के जीवन में अब साबुन एक आवश्यक आवश्यकता बन गया है। पहले जमाने के लोग नहाने या कपड़े धोने के लिए कभी कभी ही साबुन का प्रयोग करते थे, लेकिन आज इसका प्रयोग प्रतिदिन होता है। बाजार में साबुन की बिक्री का खास मुकाम है।

बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कंपनियां साबुनों का निर्माण कर रही हैं। पहले जमाने में नहाने का साबुन और कपड़े धोने का साबुन एक ही हुआ करता था, लेकिन आज नहाने का साबुन अलग होता है और कपड़े धोने का साबुन अलग होता है। अब तो बच्चों का साबुन भी अलग आने लगा है। पहले घर में रसोई के बर्तन भी राख या मिट्टी से धोए जाते थे, अब अक्सर घरों में साबुन से ही बर्तन धोए जाने लगे हैं। बर्तन धोने का यह साबुन भी अलग किस्म का होता है। इस समय भारत में साल भर में लगभग 1 अरब 95 करोड़ रुपए का साबुन बिकता है।

- विज्ञापन -

Latest News