समृद्ध आध्यात्मिक जीवन की आधारशिला है आत्मचिंतन

मनुष्य एक सांसारिक प्राणी है। संसार के भौतिक मायाजाल का हमारे मानस पटल पर प्रतिपल प्रभाव पड़ता है। कर्मों के प्रवाह में बहते हुए हमें उचित अथवा अनुचित का आभास ही नहीं होता। ऐसी विकट परिस्थितियों में आत्मचिंतन ही मनुष्य को मानसिक शक्ति प्रदान करता है। आत्मचिंतन स्वयं को सूक्ष्मता से परखने की प्रक्रिया है।.

मनुष्य एक सांसारिक प्राणी है। संसार के भौतिक मायाजाल का हमारे मानस पटल पर प्रतिपल प्रभाव पड़ता है। कर्मों के प्रवाह में बहते हुए हमें उचित अथवा अनुचित का आभास ही नहीं होता। ऐसी विकट परिस्थितियों में आत्मचिंतन ही मनुष्य को मानसिक शक्ति प्रदान करता है। आत्मचिंतन स्वयं को सूक्ष्मता से परखने की प्रक्रिया है। यह शांत मन एवं एकांत में ही फलदाई होती है। हमारे ग्रंथों में ऋषियों ने इसी आत्मचिंतन को स्वाध्याय भी कहा है। आत्मचिंतन स्वयं के द्वारा, स्वयं की चिकित्सा है।

प्रत्येक मनुष्य को प्रतिदिन अपने जीवन रूपी कर्मों के प्रवाह में से कुछ समय आत्मचिंतन अवश्य करना चाहिए। आत्मचिंतन को हमारे संतो ने सूक्ष्म छलनी की संज्ञा दी है जो कि अंतस पर पड़े हुए तामसिक विचारों की परत को अलग कर देता है। प्रतिदिन व्यस्त जीवन चर्या में से कुछ समय आत्मचिंतन अवश्य करना चाहिए जिससे हमें अपनी अज्ञान वश, अहंकारवश या प्रमादवश की गई त्रुटियों का बोध होता रहे। शारंगधर संहिता में कहा गया है कि प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत नरश्चिरतमआत्मन:।

किन्नु में पशुभि: तुल्यं किन्नु सत्पुरु षैरिति अर्थात् मनुष्य प्रात सायं जब ईश्वर का ध्यान करें तो प्रतिदिन आत्मनिरीक्षण भी करे, यह देखें कि उसका जीवन कहीं पशुओं के समान तो नहीं व्यतीत हो रहा, सत्पुरु षों के समान उत्तम कार्यों में लगा हुआ है या नहीं। आत्मचिंतन से जीवन में नई ऊर्जा का संचार होता है मनुष्य के अंत: करण पर अशुभ कर्मों का जो प्रभाव पड़ता है आत्ममंथन से उसे अतिशीघ्र दूर किया जा सकता है। आत्मचिंतन तभी लाभकारी होता है जब हमें अपनी त्रुटियां, दोष का पता चल जाए और उसे हम सहजता से स्वीकार कर लें तथा भविष्य में ऐसी त्रुटि की पुनरावृति न करें।

शुक्र नीति सार ग्रंथ में मनुष्य को सचेत करते हुए कहा गया है कि – ‘अहं सहस्रापराधी किमेकेन भवेत्। मत्वा न अघं स्मरेत् ईषद् बिन्दुना पूर्यते घट:।। अर्थात् मैं तो हजारों अपराध कर चुका हूं। अब इस एक अपराध से मेरा क्या बिगड़ जाएगा। ऐसा सोच कर कभी पाप में प्रवृत्त ने हो क्योंकि बूंद- बूंद से ही घड़ा भर जाता है, इसलिए छोटे से छोटे पाप कर्म को भी अपने मन में कदापि न आने दें। आत्मचिंतन योग साधना का ही एक हिस्सा है इस से ही मनुष्य अपने भीतर की मैल को दूर कर सकता है। सांसारिक कार्यों में मनुष्य कई बार इतना तल्लीन हो जाता है कि वह अपने जीवन की स्वाभाविकता से वंचित होकर दुखों के अज्ञात बोझ को न चाहते हुए भी लादे फिरता है।

भौतिक जंजाल से ग्रस्त होकर विवेक हीनता के साथ न करने योग्य कार्यों को करता रहता है। यही स्थिति मनुष्य के जीवन के आनंद को क्षीण कर देती है। आत्मचिंतन मनुष्य को अपने भीतर झांकने एवं अपने अंतस की परतों पर शोध करने की उर्जा प्रदान करता है। प्रत्येक व्यक्ति को यह सिद्धांत मानना चाहिए कि बड़े से बड़ा विवेकी मनुष्य भी गलती कर सकता है। आत्मचिंतन के माध्यम से प्रत्येक मनुष्य को अपना अध्ययन करना चाहिए हमें विचार न चाहिए क्या हमारे जीवन में सात्विक प्रवृत्तियों की वृद्धि हुई है या पैशाची विकृतियां ही हमारी बुद्धि पर हावी हैं। आत्मचिंतन हमें आंतरिक दृष्टि प्रदान करता है। महात्मा बुद्ध ने आत्मचिंतन के विषय में कहा है कि मनुष्य जितना अधिक आत्मचिंतन से सीख सकता है उतना किसी बाहरी स्रोत से नहीं।

आत्मचिंतन की प्रवृत्ति वाला मनुष्य सदा ही अपनी न्यूनताओं एवं दोषों को सूक्ष्मता से देखता है तथा उनको अपनी आत्मिक शक्ति के सामर्थ्य से दूर भी करने में समर्थ होता है। जीवन रूपी पथ पर प्रत्येक क्षण सावधानीपूर्वक रखने की आवश्यकता होती है। भारतीय चिंतन परंपरा में आत्ममंथन को साधना के मार्ग का प्रवेश द्वार कहा गया है। आत्मचिंतन रूपी भागीरथी में निमग्न होकर ही मनुष्य नर से नारायण तथा पुरु ष से पुरु षोत्तम की पदवी को प्राप्त कर सकता है। आत्मचिंतन से ही अंतर्मन में सद्गुणों की संपत्ति का उदय होता है तथा अधोगति की ओर ले जाने वाली तामसिक वृत्ति पर अंकुश लगता है। आत्मिक चिंतन मनुष्य जीवन को आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति की ओर ले जाता है।

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