अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पिछले हफ्ते मीडिया के साथ एक साक्षात्कार में साफ-साफ कहा कि भारत विश्व में सबसे ज्यादा टैरिफ लगाने वाले देशों में से एक है। वह शायद टैरिफ कम करेगा, पर अमेरिका 2 अप्रैल को उस पर रेसिप्रोकल टैरिफ लगाएगा यानी वह हम पर जितना टैरिफ लगाता है, हम उस पर उतना टैरिफ लगाएंगे। ट्रंप की बात अल्टीमेटम जैसी है। भारत पर दबाव अचानक बढ़ गया है, क्योंकि टैरिफ वृद्धि से होने वाले नुकसान और श्रृंखलात्मक प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
अमेरिकी टैरिफ वृद्धि से बचने के लिए भारत ने पहले कुछ कदम उठाए थे। इस जनवरी के अंत में भारत ने हाई एंड मोटर साइकिल ,दूर संचार उपकरण समेत कई वस्तुओं का टैरिफ घटाया, जिनमें अमेरिका का लाभ होता है। फरवरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा में भारत ने अमेरिका से अधिक गैस व तेल खरीदने का समझौता किया और बड़ी लागत वाले सैन्य सामान खरीदने और टैरिफ के घटाव तथा बाजार पहुंच के विस्तार का वादा किया। पर अमेरिका संतुष्ट नहीं है। उधर, भारत अमेरिका के साथ एक व्यापक व्यापार संधि संपन्न करने की कोशश कर रहा है, जिससे पारस्परिक टैरिफ की समस्या दूर हो सकती है। लेकिन अमेरिका की नजर में ऐसी संधि के लिए समय लगेगा और वार्ता प्रक्रिया सरल नहीं होगी। ट्रंप के ताजा कथन से जाहिर है कि अमेरिका टैरिफ वृद्धि और व्यापार समझौते को दो अलग मुद्दों के रूप में देखता है। अमेरिका जल्द से जल्द परिणाम चाहता है।
फिलहाल भारतीय वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय ने अमेरिकी टैरिफ मुद्दे को लेकर उद्योग जगतों के प्रतिनिधियों के साथ एक बैठक की। इसमें इस्पात और एल्यूमीनियम निर्यातकों ने कहा कि अमेरिका द्वारा इन धातुओं पर लगाये गये 25 प्रतिशत टैरिफ से पांच अरब अमेरिकी डॉलर मूल्य की वस्तुएं पहले ही प्रभावित हो चुकी हैं। इंजीनियरिंग निर्यात प्रमोशन काउंसल इंडिया के चैयरमेन पंकज चड्ढा ने कहा कि सूक्ष्म, लघु और मझौले उद्यम विशेष रूप से चिंतित हैं।
संबंधित संस्थान के अध्ययन के अनुसार अगर अमेरिका भारत के प्रति रेसिप्रोकल टैरिफ लगाएगा, तो भारत का आर्थिक नुकसान हर साल 7 अरब अमेरिकी डॉलर होगा। दवा व चिकित्सा, मोटर वाहन और कृषि समेत कई व्यवसायों को बड़ा झटका लगेगा। ध्यान रहे कि अमेरिका के प्रति निर्यात में दवा उद्योग पहले स्थान पर है और वह भारतीय मैन्यूफेक्चरिंग में अग्रणी भूमिका निभा रहा है। रेसिप्रोकल टैरिफ से मेक इन डंडिया पर निश्चिय ही बुरा असर पड़ेगा।
उल्लेखनीय बात है कि पिछले साल के आखिरी महीनों में भारत के मजबूत आर्थिक विकास में कमजोरी नजर आयी। प्रारंभिक आंकडों के अनुसार वर्ष 2024 में भारत की वास्तविक जीडीपी वृद्धि 6.7 प्रतिशत रही, जो गतवर्ष से 2.2 प्रतिशत कम हुई। पिछले अक्तूबर से भारत के शेयर बाजार में भारी गिरावट शुरू हुई। मुंबई स्टॉक एक्सचेंज के सेंसेक्स 30 का सूचकांक सबसे ऊंचे स्तर पर 85976.74 अंकों से 4 मार्च तक 72668.13 अंकों तक पहुंचा। इस दौरान 12 खरब अमेरिकी डॉलर लागत संपत्ति गायब हो गयी और विदेशी निवेशकों ने अरबों डॉलर की लागत के शेयर बेच दिये। दूसरी ओर, भारत में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश लगातार तीन साल से कम हो रहा है और गिरावट का पैमाना बढ़ रहा है। इसके अलावा भारतीय सांख्यिकी विभाग के अनुसार पिछले अप्रैल से इस फरवरी तक भारत के वस्तु-निर्यात में सिर्फ 0.06 प्रतिशत वृद्धि दर्ज हुई। ऐसी समग्र आर्थिक पृष्ठभूमि में अमेरिकी टैरिफ वृद्धि से भारतीय बाजार में निवेशकों का विश्वास कमज़ोर होगा, जो बर्फ पर पाला पड़ने जैसा है।
तो टैरिफ विवाद में क्या भारत अमेरिका की सभी मांग पूरी कर सकता है?बिल्कुल नहीं ।वस्तुगत दृष्टि से भारत को टैरिफ घटाने की गुंजाइश है। इसी कारण उस बैठक में भारतीय वाणिज्य विभाग ने निर्यातकों से संरक्षणवादी मानसिकता से आगे बढ़ने का आग्रह किया और उन्हें साहसी होने के लिए प्रोत्साहित किया। लेकिन अमेरिका भारत से अधिकांश वस्तुओं का टैरिफ शून्य या इस से थोड़े ऊपर तक करने का अनुरोध करता है। यह भारत के लिए असहनीय है। खास बात है कि अमेरिका भारत से कृषि बाजार को खोलने पर जोर दे रहा है। वर्तमान में भारतीय कृषि सेक्टर सर्वाधिक रोजगार प्रदान करता है। खास बात है कि अधिकांश किसानों के पास भूमि का क्षेत्रफल छोटा है और आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल कम है, जो अमेरिकी किसानों से मुकाबला नहीं कर सकते।
विश्लेषकों के विचार में अमेरिकी टैरिफ की धौंस के सामने भारत को एक तरफ सही जवाबी हमले की तैयारी करनी चाहिए, दूसरी तरफ उसे अपने अन्य व्यापार सहयोगियों के साथ सक्रियता से समन्वय और सहयोग मजबूत बनाना चाहिए। ताकि अमेरिकी आर्थिक नीतियों के परिवर्तन से पैदा अनिश्चितताओं और अस्थिरताओं का मिलकर सामना किया जा सके।
(साभार- चाइना मीडिया ग्रुप, पेइचिंग)