सफलता संतुष्टि देती है। आनंदित, आह्लादित करती है तो अनेक बार अहंकारी भी बनाती है जबकि असफलता प्रथम स्पर्श में निराश ही करती है। ऐसे क्षणों में जब आवश्यकता आत्मचिंतन की होती है, कुछ अविवेकी शंकालु और उन्मादी हो जाते हैं। वे संतुलन खोकर अनापशनाप बोलने यानी अपनी पराजय को सही सिद्ध करने लगते हैं क्योंकि आज नहीं सदियों से माना जाता है कि सफलता के लिए लम्बी तैयारी, अभ्यास और एकाग्रता, संतुलन चाहिए।
भारतीय दर्शन तो कर्म करते हुए भी फल को सुनिश्चित न मानने पर बल देता है। कहा जाता है कि सफलता जिम्मेवारी बढ़ती है तो मान लिया जाये कि असफलता ने आपको जिम्मेवारियों से मुक्त कर दिया है? नहीं, ऐसा भी नहीं है। गुणीजन अपनी सफलता का श्रेय दूसरों को देते हैं लेकिन असफलता की जिम्मेवारी स्वयं ओढ़ते है। अपने निकटजनों का आत्मविश्वास बढ़ाते हुए आत्मचिंतन करते है कि मेरे कमजोर पक्ष कौन कौन से थे लेकिन प्रश्न है कि क्या हम ऐसा करते हैं? परीक्षा हो या कोई भी प्रतियोगिता, खेल हो या राजनीति, लगभग हर सफल व्यक्ति की चाल बदल जाती है।
सोच बदल जाती है। कुछ विशेष प्रजाति के लोग उसे घेर लेते हैं और वह अपनों से छिटकने लगता है। परिणाम भी अपनी परिणिती को प्राप्त होते हैं और अपयश उसे तलाश कर उसके चाहने, न चाहने की परवाह किये बिना उससे लिपट ही जाता है। अपने सिद्धांतों पर अडिग रहने वाले का शिखर पर पहुंचकर भी अकेला होना कोई असामान्य बात नहीं है लेकिन शून्य में अक्सर सभी अकेले होते हैं। आत्मचिंतन, आत्म मूल्यांकन कर अपने व्यवहार में उचित परिवर्तन का संकल्प लेने की बजाय यदि हम परदोष दर्शन करने लगे तो हमारा उन्मादी हो जाना एक सहज प्रक्रि या है जो हमारी असफलता के एक महत्त्वपूर्ण घटक अर्थात हमारी मानसिक विकृति का प्रमाण होती है।
यह एक बार पुन: इस तथ्य को रेखांकित करती है कि सफलता के लिए धैर्यवान व विवेकी होना प्रथम और अनिवार्य स्थिति है। इस में कोई संदेह नहीं कि असफलता में निराशा, पीड़ा होना स्वाभाविक था लेकिन निराशा के उन क्षणों में यह क्यों जरूरी है कि हम अपनी पीड़ा दूसरों को हस्तांतरित करें। अपने प्रबंधन, अपनी योजना के साथ साथ निज नेतृत्व क्षमता की खामियों को नजरअंदाज कर हम असफलता का जिम्मेवार दूसरों कोें ठहराये।
हमारे एक मित्र चुनाव मैदान में नौ हजार से अधिक मत पाकर भी सफलता से एक कदम दूर रह गए। अनेक मित्रों को भी इस दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति के लिए क्षोभ रहा। ऐसे क्षणों में संतुलन स्थापित करने की बजाय हमारे ‘प्रिय’ मित्र अपराधियों की सूची जारी करने लगे। संगठन ने काम ही नहीं किया। उन्होंने जरा भी प्रयास नहीं किया। फलां पदाधिकारी ने मेरा साथ नहीं दिया। फलां जाति, समुदाय मेरे विरोध में एकजुट हो गया। फलां क्षेत्र में हमारे सारे लोग ‘उसके’ साथ थे। फलां मित्रों ने धोखा दिया। फलां साथियों ने छल किया। वगैरह, वगैरह।
ऐसे में मेरा उनसे एक सहज प्रश्न था कि जब किसी ने भी आपका साथ नहीं दिया, सब आपके विरूद्ध ही थे तो मित्रवर यह बतायें कि क्या आपको प्राप्त नौ हजार से अधिक वोट भी ईवीएम की गड़बड़ी का नतीजा है? सनद रहे हमारे एक विद्वान मित्र के अनुसार ईवीएम का अर्थ ई यानी अहंकार) वी यानी दादागिरी और एम यानी दुर्व्यवहार) भी होता है। सोचता हूं सफल के अहंकारी हो जाने (प्रभुता पाये किन्हे मद नाहि) के अनेकानेक कारण हो सकते हैं लेकिन असफल का उन्मादी होना कितना उचित है? जिसे हारना नहीं आता, वे जीत की कामना ही क्यों करते हैं? जो पांव भीगने के खौफ से डरते हैं उसे समुन्द्र की लहरों के रोमांच के रस्वास्वादन की जिद्द ही क्यों करनी चाहिए? बड़प्पन इसी में है कि हम खुले मन से अपनी हार को स्वीकार करें।