पश्चिम बंगाल में भी दिल्ली के जंतर-मंतर जैसे प्रदर्शन स्थल की मांग

कोलकाता : क्या कई प्रसिद्ध सत्ता विरोधी आंदोलनों का केंद्र रहे कोलकाता में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के जंतर मंतर की तर्ज पर विपक्ष की आवाज के लिए एक विशेष स्थान दिया जा सकता है। यह मुद्दा कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा राजनीतिक या गैर-राजनीतिक विरोध रैलियों की अनुमति देने के मामले में पश्चिम बंगाल प्रशासन की.

कोलकाता : क्या कई प्रसिद्ध सत्ता विरोधी आंदोलनों का केंद्र रहे कोलकाता में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के जंतर मंतर की तर्ज पर विपक्ष की आवाज के लिए एक विशेष स्थान दिया जा सकता है। यह मुद्दा कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा राजनीतिक या गैर-राजनीतिक विरोध रैलियों की अनुमति देने के मामले में पश्चिम बंगाल प्रशासन की पारदर्शिता और निष्पक्षता पर संदेह जताने के बाद सामने आया – विशेष रूप से जब रैली ऐसे मुद्दों पर हो जो राज्य सरकार या सत्तारूढ़ दल के खिलाफ जा रहा हो।

कलकत्ता उच्च न्यायालय ने पूछा है कि विरोध प्रदर्शन करने की अनुमति लेने के लिए व्यक्तियों या संगठनों को हर बार अदालत का दरवाजा क्यों खटखटाना पड़ता है। इस तरह का पहला संदर्भ 2 मई को उच्च न्यायालय में आया, जब न्यायमूर्ति राजशेखर मंथा सीपीआई (एम) से संबद्ध राज्य सरकार के कर्मचारियों के संघ पश्चिम बंगाल राज्य समन्वय समिति को 4 मई को सचिवालय तक मार्च करने की अनुमति देने संबंधी एक मामले की सुनवाई कर रहे थे। उन्होंेने शांतिपूर्ण आंदोलन की अनुमति देने में राज्य सरकार की अनिच्छा पर सवाल उठाया। यह मार्च राज्य सरकार द्वारा बढ़े हुए महंगाई भत्ते और उसके बकाये का भुगतान में देरी के विरोध में था।

जस्टिस मंथा ने सवाल किया, शांतिपूर्वक विरोध करना हर भारतीय नागरिक का लोकतांत्रिक अधिकार है। हर बार विरोध करने वाले निकायों को अदालत का दरवाजा क्यों खटखटाना पड़ता है? बाद में ट्रेड यूनियन द्वारा प्रस्तावित मार्ग की बजाय रैली के बदले हुए मार्ग को स्वीकार करते हुए न्यायमूर्ति मंथा ने सवाल किया कि क्या राज्य सरकार सत्तारूढ़ दल की रैलियों के मामले में भी इसी तरह के प्रतिबंध लगाएगी। जस्टिस मंथा ने दो दिन बाद 4 मई को रुख कड़ा करते हुए कर्मचारियों के संयुक्त फोरम द्वारा 6 मई को इसी तरह की एक विरोध रैली के मार्ग में बदलाव के लिए राज्य सरकार की याचिका को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। सरकार ने तर्क दिया था कि प्रस्तावित मार्ग मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव अभिषेक बनर्जी के आवासों के निकट था।

तृणमूल कांग्रेस का एक भी नेता आधिकारिक तौर पर इस मामले में मीडिया में खुलकर कुछ भी कहने को तैयार नहीं है। उनका कहना है कि अदालत के आदेश पर टिप्पणी करना पार्टी की नीति के खिलाफ है। पश्चिम बंगाल कैबिनेट के एक वरिष्ठ सदस्य ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि अनुमति से इनकार करने के लिए प्रशासन के पास सुरक्षा और प्रशासनिक आधार पर अपने कारण हो सकते हैं। उन्होंने कहा, ऐसा कई बार होता है। कलकत्ता उच्च न्यायालय के अधिवक्ता और सीपीआई (एम) के राज्यसभा सदस्य बिकास रंजन भट्टाचार्य ने कहा कि यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रशासन द्वारा मना किए जाने के बाद रैलियां निकालने या सभाओं या बैठकों को आयोजित करने के लिए अदालत की अनुमति मांगने वाले मामलों में उन्हें बार-बार वकील के रूप में उपस्थित होना पड़ता है।

भट्टाचार्य ने कहा, यह न केवल राजनीतिक कार्यक्रमों के लिए होता है, बल्कि गैर-राजनीतिक निकायों के कार्यक्रमों के मामलों में भी यही होता है। पहले पश्चिम बंगाल में ऐसा नहीं था। यह प्रवृत्ति 2011 में तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद शुरू हुई। वे विपक्ष को बिल्कुल जगह नहीं देना चाहते हैं – चाहे राजनीतिक हो या गैर-राजनीतिक। उन्होंने कहा कि नई दिल्ली में जंतर मंतर को विपक्ष की आवाज के लिए एक विशेष स्थान का एक उत्कृष्ट उदाहरण माना जा सकता है। उन्होंने कहा, जंतर-मंतर राष्ट्रीय राजधानी में स्थित होने के कारण, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का ध्यान हमेशा वहां रहता है। इसलिए, कई बार सत्ता में बैठे शासक वहां विपक्ष की आवाज को दबाने में संकोच करते हैं। विपक्ष की आवाज के लिए जंतर-मंतर एक आदर्श स्थान साबित हुआ है।

 

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