Hukamnama : रागु बिलावलु महला ५ चउपदे दुपदे घरु ७
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सतिगुर सबदि उजारो दीपा ॥ बिनसिओ अंधकार तिह मंदरि रतन कोठड़ी खुल्ही अनूपा ॥१॥ रहाउ ॥ बिसमन बिसम भए जउ पेखिओ कहनु न जाइ वडिआई ॥ मगन भए ऊहा संगि माते ओति पोति लपटाई ॥१॥ आल जाल नही कछू जंजारा अह्मबुधि नही भोरा ॥ ऊचन ऊचा बीचु न खीचा हउ तेरा तूं मोरा ॥२॥
अर्थ : अकाल पुरख एक है और गुरु की कृपा द्वारा मिलता है। हे भाई! जिस मन-मंदिर में गुरु की शब्द-दीपक के द्वारा (आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है, उस मन-मंदिर में आत्मिक गुण-रत्नों की बहुत सुंदर कोठरी खुल जाती है (जिस की बरकत से निचे जीवन वाले) अन्धकार का वहां से नास हो जाता है॥१॥रहाउ॥ (गुरु शब्द-दीपक की रौशनी में) जब (अंदर बसते) प्रभु का दर्शन होता है तो मेरे-तेरे वाली सब सुध भूल जाती है, परन्तु उस अवशता की बढाई बयां नहीं की जा सकती। जैसे ताने और पेटे के धागे आपस में मिले हुए होते है, उसी प्रकार प्रभु में सुरत डूब जाती है, उस प्रभु के चरणों के साथ ही मस्त हो जाते है, उस के चरणों के साथ ही चिपट जाते है॥1॥ (हे भाई! गुरु के शब्द-दीपक से जब मन-मंदिर में प्रकाश होता है, तब उस अवस्था में) ग्रहस्थी के मोह के जाल अरु झंझट महसूस ही नहीं होते, अंदर कहीं जरा भर भी “मैं मैं ” करने वाली बुद्धि नहीं रह जाती। तब मन-मंदिर में वह ऊँचा परमात्मा ही बस्ता दीखता है, उस से कोई पर्दा ताना नहीं रह जाता। (उस समय उस को यह ही कहते हैं-हे प्रभु!) में तेरा (दास) हूँ, तूँ मेरा मालिक हैं॥२॥