वीरता की अमर मिसाल साहिबजादों का बलिदान

श्री गुरु नानक देव जी ने अपने दस स्वरूपों में मानवता की निष्काम सेवा की। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब भी बलिदान की आवश्यकता पड़ी तो जीवन का बलिदान देने में भी गुरु साहिब पीछे नहीं रहे। दशम पिता गुरु गोबिंद सिंह जी के चारों साहिबजादों में भी शहीद होने की समर्था,.

श्री गुरु नानक देव जी ने अपने दस स्वरूपों में मानवता की निष्काम सेवा की। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब भी बलिदान की आवश्यकता पड़ी तो जीवन का बलिदान देने में भी गुरु साहिब पीछे नहीं रहे। दशम पिता गुरु गोबिंद सिंह जी के चारों साहिबजादों में भी शहीद होने की समर्था, जोश व वीरता इन्हें विरासत में ही मिली। इसी के फलस्वरूप इन्होंने अपने धर्म की आन-बान व शान के लिए अपना बलिदान उस आयु में दिया जिसकी मिसाल दुनिया में कहीं और नहीं मिल सकती। इनके बलिदान के बारे में यह कहा जाता है।

‘दोहं ने धरती चमकौर दी रंग दित्ती
दोहं सरहिंद दी धरती शिंगार गए।’

वर्ष 1705 में दिसम्बर 20-21 की सर्दी एवं बरसात की रात्रि में गुरु साहिब ने आनंदपुर साहिब को अलविदा कहा। मुगल फौज के अचानक हमला करने के कारण उन्होंने अपने दोनों छोटे साहिबजादों बाबा जोरावर सिंह जो उस समय मात्र 8 वर्ष व बाबा फतेह सिंह जो मात्र 5 वर्ष के थे, उन्हें व माता गुजरी जी को अपने विश्वासपात्र गंगू रसोइए के साथ उसके गांव भेज दिया। गुरु जी दो बड़े साहिबजादों बाबा अजीत सिंह व बाबा जुझार सिंह व लगभग 40 भूख से व्याकुल सिंहों को लेकर 21 दिसंबर 1705 को रोपड़ पहुंचे जहां से उनके श्रद्धालु बुधी चंद ने उन्हें चमकौर साहिब अपनी हवेली आने की दावत दी जो सुरक्षा व युद्ध के लिए उपयुक्त थी।

गुरु साहिब अपने साथियों के साथ हवेली में चले गए। मुगल फौज को उनके जाने के बारे में पता चल गया। नवाब वजीर खां ने हवेली को अपने सैनिकों के साथ चारों तरफ से घेर लिया। सभी तरफ से हवेली पर आक्रमण बोल दिया गया। गुरु साहिब ने पांच-पांच सिंहों के जत्थे बनाकर हवेली से बाहर भेजने प्रारम्भ कर दिए। ‘बोले सो निहाल’ के जयकारे लगाते गुरु के सिंह रणभूमि में विरोधी फौजों के सैकड़ों पर भारी पड़ने लगे। मुगल संख्या में बहुत अधिक होने के कारण सिंह शूरवीर शहीद होने लगे।

गुरु जी के बड़े साहिबजादे बाबा अजीत सिंह जब युद्ध में जाने लगे तो गुरु जी को बाकी सिंहों ने कहा कि इन्हें युद्ध में न भेजा जाए। दशम पिता ने कहा कि आप सभी मेरे साहिबजादे हैं। बड़े साहिबजादे गुरु साहिब से आशीर्वाद प्राप्त कर युद्ध भूमि में उतरते ही मुगल फौज पर काल बनकर टूट पड़े। तलवार के साथ कई दुश्मनों के सिर बड़े साहिबजादे ने धड़ से अलग कर दिए। जब उनका घोड़ा घायल होकर गिर गया तो उन्होंने पैदल ही युद्ध किया। आखिरकार युद्ध क्षेत्र में आप वीरगति को प्राप्त हुए।

इसके उपरांत बाबा जुझार सिंह जी जो उस समय मात्र 13 वर्ष से कुछ अधिक आयु के थे, ने भी अपने पिता से युद्ध क्षेत्र में जाने की इच्छा व्यक्त की। गुरु जी ने उन्हें तत्काल आज्ञा दे दी। रणभूमि में इनकी वीरता देखकर मुगल फौज दंग रह गई। मुगल फौज में भगदड़ मच गई। आखिरकार साहिबजादा जुझार सिंह जी भी शहीद हो गए। दूसरी तरफ गंगू रसोइये ने जब माता गुजरी के पास दौलत देखी तो उसका मन बेईमान हो गया। दौलत की चोरी कर सूचना देकर दोनों छोटे साहिबजादों व माता गुजरी जी को गिरμतार करवा दिया गया।

तीनों को जंजीरों में जकड़कर सरहिंद भेज दिया गया। दोनों छोटे साहिबजादों को माता गुजरी से अलग कर अदालत में पेश किया गया। नवाब वजीर खां व वजीर सुच्चा नंद ने इस्लाम धर्म कबूल करने के लिए दोनों साहिबजादों को प्रलोभन दिए परन्तु सब कुछ व्यर्थ रहा। इसके उपरांत इन्हें डराया-धमकाया गया परन्तु कुछ लाभ नहीं हुआ। साहिबजादों के विरुद्ध फतवा जारी हुआ कि दीवार की नींव में इनकी चिनाई की जाए ताकि इनकी मौत हो जाए। इतिहास वह दिन कभी नहीं भूल पाएगा जिस दिन जारी किए गए फतवे के अनुसार दोनों साहिबजादों को दीवार की नींव में चिनवा दिया गया।

हर ईंट लगाते समय उनको अपना इरादा बदलने के लिए कहा गया परन्तु गुरु जी की फौलादी इरादे वाली औलाद पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। साहिबजादों ने अपनी शहादत दे दी लेकिन धर्म को पीठ नहीं दिखाई। जालिम अपना काम करते गए और साहिबजादे अपने धर्म पर अटल रहे। दोनों की शहादत की खबर सुनकर माता गुजरी जी ने भी प्राण त्याग दिए। चारों साहिबजादे अपनी वीरता एवं बलिदान की ऐसी इबारत लिख गए जो युगों-युगों तक हमेशा अमर रहेगी।

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