हुक्मनामा श्री हरिमंदिर साहिब जी 30 दिसंबर

सलोकु मः ३ ॥ पड़णा गुड़णा संसार की कार है अंदरि त्रिसना विकारु ॥ हउमै विचि सभि पड़ि थके दूजै भाइ खुआरु ॥ सो पड़िआ सो पंडितु बीना गुर सबदि करे वीचारु ॥ अंदरु खोजै ततु लहै पाए मोख दुआरु ॥ गुण निधानु हरि पाइआ सहजि करे वीचारु ॥ धंनु वापारी नानका जिसु गुरमुखि नामु.

सलोकु मः ३ ॥
पड़णा गुड़णा संसार की कार है अंदरि त्रिसना विकारु ॥ हउमै विचि सभि पड़ि थके दूजै भाइ खुआरु ॥ सो पड़िआ सो पंडितु बीना गुर सबदि करे वीचारु ॥ अंदरु खोजै ततु लहै पाए मोख दुआरु ॥ गुण निधानु हरि पाइआ सहजि करे वीचारु ॥ धंनु वापारी नानका जिसु गुरमुखि नामु अधारु ॥१॥ मः ३ ॥ विणु मनु मारे कोइ न सिझई वेखहु को लिव लाइ ॥ भेखधारी तीरथी भवि थके ना एहु मनु मारिआ जाइ ॥ गुरमुखि एहु मनु जीवतु मरै सचि रहै लिव लाइ ॥ नानक इसु मन की मलु इउ उतरै हउमै सबदि जलाइ ॥२॥ पउड़ी ॥ हरि हरि संत मिलहु मेरे भाई हरि नामु द्रिड़ावहु इक किनका ॥ हरि हरि सीगारु बनावहु हरि जन हरि कापड़ु पहिरहु खिम का ॥ ऐसा सीगारु मेरे प्रभ भावै हरि लागै पिआरा प्रिम का ॥ हरि हरि नामु बोलहु दिनु राती सभि किलबिख काटै इक पलका ॥ हरि हरि दइआलु होवै जिसु उपरि सो गुरमुखि हरि जपि जिणका ॥२१॥

अर्थ :-पढ़ना और विचारना संसार का काम (ही हो गया) है (भावार्थ, ओर विहारों की तरह जैसे यह भी एक विहार ही बन गया है, पर) हृदय में त्रिशना और विकार (टिके ही रहते) हैं; अहंकार में सारे (पंडित) पढ़ पढ़ के थ`क गए हैं, माया के मोह में खुआर ही होते हैं। वह मनुख पढ़ा हुआ और समझदार पंडित है (भावार्थ, उस मनुख को पंडित समझो), जो सतिगुरु के शब्द में विचार करता है, जो आपने मन को खोजता है (अंदर से) हरि को खोज लेता है और (त्रिशना से) बचने के लिए मार्ग खोज लेता है, जो गुणों के खज़ाने हरि को प्राप्त करता है और आत्मिक अढ़ोलता में टिक के परमात्मा के गुणों में सुरति जोड़ी रखता है। हे नानक! इस तरह सतिगुरु के सनमुख हुए जिस मनुख को ‘नाम’ सहारा (रूप) है, उस नाम का व्यापारी मुबारिक है ।१।आप कोई भी मनुष्य ब्रिती जोड़ कर देख लो, मन को काबू करे बिना कोई कामयाब नहीं (भावार्थ, किसी का परिश्रम काम नहीं आया)। भेख करने वाले (साधू भी) तीर्थों की यात्रा कर के रह गए हैं, (इस तरह) यह मन मारा नहीं जाता। सतिगुरू के सनमुख हो कर मनुष्य सच्चे हरी में ब्रिती जोड़ी रखता है (इस लिए) उस का मन जीवित रहते हुए ही मरा हुआ है (भावार्थ, माया में रहते हुए भी माया से निरलेप है।) हे नानक जी! इस मन की मैल इस तरह उतरती है कि (मन की) हउमै (सतिगुरू के) श़ब्द के द्वारा जलाई जाए ॥२॥ हे मेरे भाई संत जनों! एक किनका मात्र (मुझे भी) हरी का नाम जपावो। हे हरी जनों! हरी के नाम का सिंगार बनावो, और माफ़ी की पुश़ाक पहनावो। इस तरह का सिंगार प्यारे हरी को अच्छा लगता है, हरी को प्रेम का सिंगार प्यारा लगता है। दिन रात हरी का नाम सिमरो, एक पल में सभी पाप कट देंगे। जिस गुरमुख पर हरी दयाल होता है, वह हरी का सिमरन कर के (संसार से) जीत (कर) जाता है ॥२१॥

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